स्वरचित कविता
शीर्षक-- "गुरू की महिमा अपरम्पार"
सुंदर सुखकर यह संसार-
भू से नभ तक है विस्तार,
जन-मन,तन,वन,जल सब जानें-
गुरू की महिमा अपरम्पार
लकड़ी की मैं कलम बनाऊं-
उदधि-नीर की स्याही लाऊं,
फिर भी लिखी न जाए महिमा-
गुरु पर मैं बलिहारी जाऊं.
मात-पिता,गुरू का सम्मान-
वसुंधरा पर है वरदान,
राज ये जिसने समझ लिया है-
उसी शिष्य की बढ़ती शान.
________
डा.अंजु लता सिंह 'प्रियम',नई दिल्ली
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.