शीर्षक-"सुनहरा बचपन" स्वर्णिम,प्यारा,भोला सा और कितना अपनापन
याद आता है मुझको मेरा वो प्यारा बचपन
झूमे मेरा मन...
कितनी बातें करते थे हम छत पर जाकर तारों से
हांक लगाकर छुप जाते थे रेलिंग और चौबारों से
कंचे, गिट्टी,कैरम , लूडो पोशंपा खो-खो के खेल
क्यारी में सींचा करते थे लोकी खरबूजे की बेल
जमकर मेहनत करते,पढ़ते और अव्वल रहते हम
याद आता है मुझको मेरा वो प्यारा बचपन
झूमे मेरा मन...
सावन की रिमझिम बूंदों में देर तक भीगा करते थे
कागज की कश्ती लेकर फिर दूर तक मस्ती करते थे
मित्र मंडली मिलकर चलती किया नहीं जी कभी किनारा
सुख में प्रफुलित रहते दु:ख में बनते सदा सहारा
जिंदादिल संगी थे सारे सब में था दमखम
याद आता है मुझको मेरा वो प्यारा बचपन
छत पर खाट बिछाकर दादी जब आवाज लगाती थीं
पर फैलाकर उड़कर जाती बन जाती मैं शहजादी थी
बिस्तर लगा करीने से दिल में उनके बस जाती थी
लाड. लड़ातीं मुझ पर मधुरिम गीत सुनाती थीं
सुबह सवेरे उठकर उनको करती सदा नमन
याद आता है मुझको मेरा वह प्यारा बचपन
विद्यालय में जब भी मेरे आयोजित होता था फंक्शन
मोर-मुकुट,पीतांबर पहने बनती थी मैं सदा किशन
बंसी मधुर बजाकर मोहित कर देती हर मन
छूकर मेरे चरण सभी हो जाते थे उॠण
याद आता है मुझको मेरा वह प्यारा बचपन
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स्वरचित मौलिक और अप्रकाशित एवं अप्रसारित कविता
डा.अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली
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