स्वरचित कविता
शीर्षक-"मेरी साईकिल"
बचपन बड़ा सुहाना था
हर करतब मनमाना था
अक्सर हम जिद करते थे
पर मम्मी से डरते थे
हौले से दादू आते
बलिहारी हम पर जाते
हमसे फिर बतियाते थे
अच्छी बात सिखाते थे
यूं हठ करना ठीक नहीं
यह तो अपनी लीक नहीं
पढ़कर अव्वल आओ तुम
फिर इच्छा बतलाओ तुम
पापा मम्मी से कह कर
बोलूंगा फिर मैं खुलकर
मुन्नी को चाहिए साईकिल
तभी हंसेगी वह खिल खिल
हमको बात समझ में आई
जमकर की फिर खूब पढ़ाई
सबका ही दिल जीत लिया
जला आस का एक दीया
झट से मानी मेरी बात
झट से मानी मेरी बात
मिली बाईसिकल सौगात
खिली थी तब जाड़ों की धूप
हमने अजी चलाई खूब
टिन-टिन घंटी बजा-बजा कर
अपनी ए-वन दिखा-दिखाकर
खूब चलाई नई सवारी
उतरी पर ना अजब खुमारी
खुशी से हम थे मालामाल
तन मन अपना था बेहाल
दो पहियों की करामात थी
मित्र-मंडली मेरे साथ थी
आगे लगी सजीली डलिया
उसमें सजे फूल और कलियां
पीछे लगा कैरियर प्यारा
खुशियों का था वही पिटारा
घर से शाला और फिर घर
किया था बरसों सुखद सफर
पीछे रखती थी मैं बस्ता
मनमोहक लगता था रस्ता
बदन छरहरा, स्वस्थ शरीर
साईकिल ने हर ली पीर
मेरी बनी सहारा हरदम
उड़ती मैं बन मस्त समीर
मेरा सबसे पहला प्यार
साइकिल पर हुई सवार
यादों में है बसी मधुरता
चूमूं इसको बारंबार
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लेखिका
डा. अंजु लता सिंह गहलौत
नई दिल्ली
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