"पेपर विफ्फ" के बेमिसाल मंच पर "बचपन की यादें"विषय पर प्रतियोगिता हेतु प्रेषित मेरा स्वरचित मौलिक अप्रकाशित एवंअप्रसारित गीत....
स्वरचित बाल गीत
दिनांक-30-7-2022
शीर्षक-"बचपन में"
कितने मजे किये थे हमने अपने प्यारे बचपन में-
याद आते हैं नित्य निरंतर,हाय! उमर इस पचपन में.
बोल तोतले बोल बोलकर,सबके मन को जीता था-
मम मम मम मम,पा पा पा पा,कहना हमने सीखा था,
शैतानों में नाम लिखाकर धमाचौकड़ी करते थे-
अपने और पराए में तो फरक हमें न दीखा था
विद्यालय में जाकर मन यह रम जाता था जन गण में
देशप्रेम की लहर उठे थी ,कोमल से इस तन मन में
कितने मजे किये थे हमने अपने प्यारे बचपन में-
याद आते हैं नित्य निरंतर,हाय! उमर इस पचपन में.
मेरी गुड़िया,परी,लाड़ली कहतीं थीं हरदम दादी-
खेल-खिलौने खेले जमकर,तोड़-फोड़ की आज़ादी,
चाचा-चाची,ताऊ-ताई,सबके दिल में बसते थे-
टंगे कलैंडर में दिखते थे नेहरू और बापू गांधी.
खूब मजे करते थे,नाचे रिमझिम रिमझिम सावन में
नाव चलाते थे कागज की,घर के प्यारे आंगन में
कितने मजे किये थे हमने अपने प्यारे बचपन में-
याद आते हैं नित्य निरंतर,हाय! उमर इस पचपन में.
गुड्डे-गुड़िया,गुल्ली डंडा,कंचे,लूडो और कैरम
पोशम पा औरआइस पाइस,तकिये लेकर ढिशुम ढिशुम
चोर-सिपाही,खो-खो,धप्पा,स्टापू,कूदी रस्सी
खेल खेलते अजब अनोखे,बाजी जीती थीं हरदम
यारों के संग मजे किये,नौटंकी देखी पलटन में
राम की लीला देखी जब जब,जोश भरा मरियल तन में
कितने मजे किये थे हमने अपने प्यारे बचपन में-
याद आते हैं नित्य निरंतर,हाय! उमर इस पचपन में.
भरी दोपहरी बरफ का गोला, चने मुरमुरे खूब उड़ाए
पीपल के नीचे जा देखा,भूत पिरेत नजर नहीं आए
दाढ़ी वाला बाबा आया,कहकर मां ने खूब डराया
इस धोखे में रखकर हमको,कटु दवा के घूंट पिलाए
कागज की नैया तैराई, रहते थे बस उलझन में
हम क्यों बैठ नहीं पाते हैं?सोचा करते थे मन में
कितने मजे किये थे हमने अपने प्यारे बचपन में-
याद आते हैं नित्य निरंतर,हाय! उमर इस पचपन में.
छत पर जाकर पतंग उड़ाई ,धमाचौकड़ी खूब मचाई
काटी पतंग पड़ोसी की जब ,शाबाशी देते थे भाई
बात-बात में झगड़ा होता,चकरी,मांझे,कागज पर
पापा आ जाते थे झटपट,कर देते थे खूब धुनाई
मार प्यार का मधुरिम संगम देखा उस अपनेपन में
भूल नहीं सकते हैं वो दिन,स्वर्णिम हैं जो जीवन में
कितने मजे किये थे हमने अपने प्यारे बचपन में-
याद आते हैं नित्य निरंतर,हाय! उमर इस पचपन में.
भोलेपन, नादानी और सच्चाई का संगम था तब
बैरभाव तो कभी न जाना,लाड़ प्यार की रही तलब
मुट्ठी में तकदीर लिये फिरते थे घर के आंगन में
राम राम,राधे राधे ही संबोधन करते थे सब
माया-मोह,खुशी,उम्मीदें,छिपी नहीं थी इस धन में
सारे पुण्य छिपे रहते थे मां बाबा के दर्शन में
कितने मजे किये थे हमने अपने प्यारे बचपन में-
याद आते हैं नित्य निरंतर,हाय! उमर इस पचपन में.
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स्वरचित,मौलिक, अप्रकाशित एवंअप्रसारित कविता-
रचयिता-डा.अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली
सर्वाधिकार सुरक्षित ©®
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