स्वरचित कविता
शीर्षक-मेरी मां...
मेरी मां मेरे इस मन में हरदम बैठी रहती है
ढेर दुआओं की सौगातें मुझको देती रहती है
दुःख सुख में मैं उनको ध्याऊं,बार -बार बलिहारी जाऊँ-
रजनीगंधा के फूलों सी मन में महका करती है.
मेरी मां...
दूरी की मजबूरी हैअब, रोज फोन पर होती बातें-
कैसे मिलने जाऊँ उनसे,खिसक रहे हैं दिन और रातें,
गीता,रामायण के संदेशों को दोहराया करती है -
पापा की यादों में सिमटी,निशदिन जीती रहती है.
मेरी मां..
बिन मौसम जब बरखा होती,धीरज अपने मन का खोती-
फसल कट गई है खेतों में ,सुनकर मन में खुशियां बोती,
गांव शहर की जिम्मेदारी, खूब निभाया करती है
ममतामयी,नेह से पूरित,मन में खुशियां भरती है.
मेरी मां ....
क्रूर कोरोना था जब आया,पसर गया था डर का साया
दूर बसा परदेसी भैया,घर पर मिलने न आ पाया,
उसकी चिंता में घुलती थीं शाम सवेरे दोपहरी -
हर बालक पर आशीषों की झड़ी लगाए रहती है.
मेरी मां...
पूजा-अर्चन की अधिकारी,देवी सी है अनुपम न्यारी
दुआ सदा देती है सबको,उसपर जाऊँ मैं बलिहारी
पिता आसमां से ऊँचे और मां पावन सी धरती है
मेरे चारों धाम मेरी मां, दिल में हर पल बसती है
मेरी मां....
स्वरचित-
रचयिता- डा.अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली
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