स्वरचित कविता
शीर्षक- "हलो समर"
शीर्षक-"कहो जी गर्मी!"
हौले हौले सरक गया लो बासंती परिवेश सुहाना
मुरझाए गुल हमें सिखाते समय गया अब क्या पछताना?
तपती गर्मी आई है अब नया बुनो रे ताना-बाना
लिखो नया कोई अफसाना
आओ ग्रीष्म करें अभिनंदन!
सूर्य रश्मियों का भी वंदन.
खूब बिखेरो आतप भू पर
हमें सताओ हरदम छूकर
तप कर निकले कण-कण,तृण-तृण
सुथरे- निखरे हों घर आंगन
पहनो अपना सुन्दर बाना
हौले हौले सरक गया लो बासंती परिवेश सुहाना....
हलो समर!पाहुन जी आओ! कहो भला कैसे हो भैया?
नदी,नाले और कूप,सरोवर पूछ रहे हैं ताल-तलैया.
दादुर,मछली,जलमुर्गी और कच्छप छिपकर बैठे जल में
बस इतना उपकार करो पानी न पहुंचे नीचे तल में
अमलतास के झूमर लटके, गुलमोहर मुस्कुराए हैं
आम्र मंजरी महक रही है कोकिल-स्वर भरमाए हैं
बालक सोच रहे हैं सारे कहाँ जाएं? क्या खेलें खेल?
मौसम की है मार हठीली कैसे हो मित्रों से मेल?
चलें माॅल मम्मी पापा संग घूमें करके कोई बहाना
तपती गर्मी आई है अब नया बुनो रे ताना-बाना
हौले हौले सरक गया लो बासंती परिवेश सुहाना....
उद्यानों में निपट उदासी, बेरौनक है कोना कोना
चहल-पहल गायब है सारी, सूख गया मखमली बिछौना
आलस आए बहे पसीना, मक्खी-मच्छर करते भिन-भिन
लंबे दिन कटते नहीं हमसे, कूलर ए.सी पंखे के बिन
कुल्फी शरबत भरे कुलांचे, ठेली पर करते हैं नर्तन
ठंडा पानी पीना चाहें, तन-मन में आया परिवर्तन
घर में घुसकर बैठे हैं सब, बंद हुआ है बाहर जाना
तपती गर्मी आई है अब, नया बुनो रे ताना बाना
हौले हौले सरक गया लो बासंती परिवेश सुहाना....
सूर्य रश्मियों को संग लेकर, वसुधा को नित तपा रहे हैं
ताकतवर स्वामी हूँ जग का, शायद सबको बता रहे हैं
लू के गर्म थपेड़े लगते, जीव जंतु सब हैं बेहाल
आया दुष्कर्म मौसम जालिम, सुख की तो अब गले ना दाल
धूल भरे अंधड़ चलते हैं, जब-जब बढ़ता जाता ताप
प्रलयंकर सा दृश्य भयावह, हो जाता है अपने आप
ऐसी गर्मी में नरमी से,पेशआएं हम खुद ही खुद से
घर पर रहकर कला निखारें लेखन करते रहें खुशी से.
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रचयिता- डा. अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली
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