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वीडियो निर्मिति प्रतियोगिता हेतु रचित एवं प्रेषित प्रविष्टि
स्वरचित मौलिक,अप्रकाशित एवंअप्रसारित कविता
शीर्षक-"पुरुष प्रधान समाज हमारा"
सदियों से सुनते आए हैं,"पुरुष प्रधान समाज हमारा"
इस उक्ति को मेरे मन ने ,सचमुच हरदम ही स्वीकारा
नारी है हर घर की शोभा,सोलह आने बात सही है
फिर भी है वर्चस्व मनुज का,ब्रह्मा ने ही सृष्टि रची है
मनु तपस्वी ने ही निशदिन,बुना जगत का ताना-बाना
अनुपम हुआ राम अवतार,कर्मशील कान्हा का आना
वीर भरत ही आगे चलकर भारत की पहचान बने
पौरुष है अनमोल जमीं पर इससे न अंजान बनें
अर्धनारीश्वर बनकर प्रभु ने,गौरा को सम्मान दिया
शिव बिन शक्ति रहे अधूरी,जगती को वरदान दिया
शैशव से ही देख रही हूँ,अपना प्यारा सा परिवार
पापा,भैया,चाचा,ताऊ और बाबा का मिला दुलार
घर के मुखिया पिता मेरे,देखभाल सबकी करते थे
सबके हिस्से की खुशियां दे,इच्छाएं पूरी करते थे
उनसे ही सीखा है मैंने सदाचार उत्तम व्यवहार
गुरु-दीप बन ज्ञान-उजाला किया,मिटाया अंधकार
पापा,भैया,जीवन-साथी दिल के मेरे सभी करीब
बेटी, बहन,भार्या बनकर,चमक उठा है मेरा नसीब
प्रेरक पापा के होने से सिर पर रही छत्रछाया
भैया से अनमोल रतन पाकर मेरा मन मुस्काया
जीवन पथ पर हमराही के आने से सब खास हुआ
गगन पैर के नीचे,सिर पर धरती का अहसास हुआ
थिरक-थिरककर मन-मयूर ने नर्तन करना सीख लिया
प्रियतम की संगत ने मुझको कर्मठ और निर्भीक किया
पुरुष कठोर कहाता,पर कोमल नारी का रखवाला
नारी को सम्मानित करके, कहलाता है दिलवाला
इसीलिए मेरी जिव्हा तो,पौरूष का गुणगान करे
पुरुष समाज सहिष्णु,कर्मठ,मिथ्या न अभिमान करे।
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स्वरचित,मौलिक, अप्रकाशित एवंअप्रसारित कविता
रचयिता-डा.अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली
सर्वाधिकार सुरक्षित ©®
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