स्वरचित कविता
शीर्षक-"होली :अबकी तबकी"
होली आई रे हमजोली
करो शोर हुड़दंग ठिठोली
पिचकारी ले लो रे कान्हा
बच ना पाए कोई संगी-सहेली
रंग गुलाल उड़ाओ जमकर
पी लो ठंडाई भांग की गोली
प्रेम-रंग में सराबोर हो
कहती है मस्तानी टोली
खुलकर मधुबन में जब कान्हा
राधा संग रास रचाते थे
फागुन पर पिचकारी लेकर
ग्वालों संग घात लगाते थे
सुभग सखा सब प्रेम पगे थे
ब्रज की हर गोपी थी भोली
बंसी की मीठी धुन सुनकर
नेहा से भरते थे झोली
ऐसी थी तब की होली...
कलयुग के काले मन हैं अब
श्वेत झूठ से खेलें होली
कृत्रिमता का रंग घोलकर
द्वेष,बैर की मलते रोली
मुरली की धुन कौन सुने अब
सीटी बजती है गली गली
अर्धनग्न सी लैला भटकें
छैले घूमें छली बली
ऐसी है अबकी होली...
कोयल कहती है पुकार के-
बाग-बगीचे,अली-कली
आओ फूलों से खेलो सब
बोलो मिश्री सी बोली
आओ सब खेलें होली
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स्वरचित-डा.अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली
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