मजबूरी

दिव्यांग तन मन विवशता दर्शाता है.

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Dr. Anju Lata Singh 'Priyam'
Dr. Anju Lata Singh 'Priyam' 10 Aug, 2024 | 1 min read

स्वरचित कविता 

शीर्षक-“मजबूरी”



अंक में ले नहीं सकती-

हा! कैसी है यह मजबूरी,

बिना हाथों के है तेरी मां-

झेल रही है अद्भुत दूरी.


कदम काँपते हैं अब मेरे-

व्हील चेयर पर ही टिकते,

जुबां रहे ख़ामोश सदा ही-

अश्रुपूर्ण नयन दिखते.


दुधमुँहा शिशु विकल है मेरा-

रूदन करे रात और दिन,

मुस्काता नन्ही निगाहों से-

रह लेता है माँ के बिन.


कितना दर्दनाक मंजर था-

 रोड हादसे का उस दिन,

कुचल गए अंगों की पीड़ा-

टीस उठाती है पल-छिन.


कहने को दिव्यांग हूँ मैं अब-

छिने मगर मेरे अधिकार,

दौड़ लगाना भूल गई हा!

मेरे कर मुझपर हैं भार.

 ——-

रचयिता- डा. अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली

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Dr. Anju Lata Singh 'Priyam'

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