स्वरचित कविता
शीर्षक-“मजबूरी”
अंक में ले नहीं सकती-
हा! कैसी है यह मजबूरी,
बिना हाथों के है तेरी मां-
झेल रही है अद्भुत दूरी.
कदम काँपते हैं अब मेरे-
व्हील चेयर पर ही टिकते,
जुबां रहे ख़ामोश सदा ही-
अश्रुपूर्ण नयन दिखते.
दुधमुँहा शिशु विकल है मेरा-
रूदन करे रात और दिन,
मुस्काता नन्ही निगाहों से-
रह लेता है माँ के बिन.
कितना दर्दनाक मंजर था-
रोड हादसे का उस दिन,
कुचल गए अंगों की पीड़ा-
टीस उठाती है पल-छिन.
कहने को दिव्यांग हूँ मैं अब-
छिने मगर मेरे अधिकार,
दौड़ लगाना भूल गई हा!
मेरे कर मुझपर हैं भार.
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रचयिता- डा. अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली
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