स्वरचित लघु कथा
शीर्षक-" हमदर्द "
- पापा! आपको तो अच्छी तरह से पता है न, कितना दर्द रहता है आपके बांएं हाथ में?
-आप सिर के नीचे हाथ रखकर मत लेटिये, नहीं तो दर्द बढ़ते नहीं लगेगी.
कहते हुए रमेश ने पिता केअद्द सिरहाने तकिया लगा दिया।
-खुश रह पुत्तर!जीता रह.
पिता ने आशीष दिया.
-अपनों के लिये 'हमदर्द फरिश्ता' है मेरा भतीजा...प्रभु! इसे लंबी उमर दे.
कहते हुए रमेश की बुआ वहीं खाट पर बैठ गईं.
तभी पड़ोसन शांति देवी उनके पास ही आ बैठीं .
- बेटा!बहू से कहना बढ़िया सी चाय बना लाएगी अपनी काकी के लिये.
कुछ ही देर में रमेश चाय की ट्रे लेकर रसोई से निकला ही था, कि काकी बोलीं-
- अरे! बहू कहां है? चाय तुमने काहे बनाई बिटवा? जे तो घर की औरतन का काम है.
- तो क्या हुआ काकी?मीना के सिर में तेज दर्द है, आराम कर रही है जरा.
- ओहो! सारा दिन घर में ही तो रहती है, कोई नौकरी तो करती नहीं, फिर भला बहू के इतने नखरे क्यों?
बुआ जी द्वारा कहे गए व्यंगात्मक वाक्य ने रमेश को सोचने के लिये मजबूर कर दिया था-'क्या 'हमदर्द फरिश्ता' अपनी ही पत्नी के दर्द में सहभागी नहीं हो सकता?
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स्वरचित-
लेखिका- डॉक्टर अंजु लता सिंह 'प्रियम', नई दिल्ली
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