ज़िन्दगी का ये हुनर आजमाना ही था,
हाँ मुझे उस वक्त शरमाना नही था।
उससे मिलने जाता भी तो क्या कहता,
मेरे पास कोई फ़साना भी नही था।
वो जो ठहरें तो मेरे पहलू में ही ठहरें,
मेरा कोई और ठिकाना भी नही था।
दहकती धूप को मौसम कितना अच्छा है,
इसके सिवा कोई और बहाना भी नही था।
महीनों से जो सोचा था क्या क्या बोलूंगा,
फिर क्यूँ नही बोला,ज़माना भी नही था।
ख़त में भी कह सकता था, मग़र कैसे,
उन गलियों में आना जाना भी नही था।
एक सवाल ही तो था, कह देते 'अमन',
वो किसी और का दीवाना भी नही था।
©aman_g_mishra
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