प्रियप्रवास

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 03 Sep, 2019 | 1 min read

प्रियप्रवास


बीसवीं सदी के दूसरे दशक की शुरुआत में, 1912 के आसपास, अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध" जी के "प्रियप्रवास" का अनावरण हुआ, मूलत: ये एक विरह काव्य है, जो मेरे प्रिय चरित्र कृष्ण के आस पास बुना हुआ है | संभवत: हिन्दी का पहला सफल महा-काव्य, हरिऔध जी ने इसका नाम पहले "ब्रजांगना-विलाप" रखा था, बाद में कुछ कारण-वश बदलना पड़ा, पर इसका भाषागत कोई असर नहीं होता | संस्कृत के अधिकाधिक प्रयोग होने के कारण कुछ लोग ये भी कहने लगे थे कि इसे संस्कृत में ही लिखा जाता तो बेहतर होता | प्रिय प्रवास के अलावा वैदेही वनवास, अध खिला फूल और रुक्मिणी परिणय भी उनकी बेहतरीन रचनाएँ है |


इसकी कथावस्तु का मूल श्रीमद्भागवत का दशम स्कंध है, जिसमें श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनके युवावस्था, कृष्ण का ब्रज से मथुरा को प्रवास और लौट आना वर्णित है। सम्पूर्ण कथा, दो भागों में विभाजित है। पहले से आठवें सर्ग तक की कथा में कंस के निमंत्रण लेकर अक्रूर जी के ब्रज में आने का वर्णन है जिसके बाद श्रीकृष्ण समस्त ब्रजवासियों को शोक में छोड़कर मथुरा चले जाते है। नौवें सर्ग से लेकर सत्रहवें सर्ग तक की कथा में कृष्ण, अपने मित्र उद्धव को ब्रजवासियों को सांत्वना देने के लिए मथुरा भेजते है। राधा अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर मानवता के हित के लिए अपने आप को न्योछावर कर देती है।


कृष्ण के मथुरा गमन के बाद ब्रज की दशा का मार्मिक वर्णन है। कृष्ण के वियोग में सारा ब्रज दुखी है। राधा की स्थिति तो अकथनीय है। नंद यशोदा आदि बड़े व्याकुल हैं। पुत्र-वियोग में व्यथित यशोदा का करुण चित्र हरिऔध ने खींचा है, यह पाठक के ह्रदय को जैसे करुणा-मय कर देता है-


प्रिय प्रति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है?

दुःख जल निधि डूबी का सहारा कहाँ है?

लख मुख जिसका मैं आजलौं जी सकी हूँ।

वह ह्रदय हमारा नैन तारा कहाँ है?


संध्या का एक सुंदर दृश्य देखिए-


दिवस का अवसान समीप था,

गगन था कुछ लोहित हो चला।

तरु शिखा पर थी जब राजती,

कमलिनी-कुल-वल्लभ का प्रभा।


नहीं मिलते आँखों वाले, पड़ा अंधेरे से है पाला।

कलेजा किसने कब थामा, देख छिलते दिल का छाला।।

कृष्ण के मथुरा गमन के बाद ब्रज की दशा का मार्मिक वर्णन है। कृष्ण के वियोग में सारा ब्रज दुखी है। राधा की स्थिति तो अकथनीय है। नंद यशोदा आदि बड़े व्याकुल हैं।


एक तरफ जहॉं सरल और मुहावरेदार व्यावहारिक भाषाप्रयोग है तो दूसरी ओर संस्कृत के तत्सम शब्दों का तो इतनी अधिकता है कि कहीं-कहीं उनकी कविता हिंदी की न होकर संस्कृत की सी ही प्रतीत होने लगती है। राधा का रूप-वर्णन करते समय देखिए-


रूपोद्याम प्रफुल्ल प्रायः कलिका राकेंदु-बिंबानना,

तन्वंगी कल-हासिनी सुरसि का क्रीड़ा-कला पुत्तली।

शोभा-वारिधि की अमूल्य मणि-सी लावण्य लीलामयी,

श्री राधा-मृदु भाषिणा मृगदगी-माधुर्य की मूर्ति थी।


आप भी आनंद लीजिए, तब तक मैं कुछ और लेकर आता हूँ...एक तरफ जहॉं सरल और मुहावरेदार व्यावहारिक भाषाप्रयोग है तो दूसरी ओर संस्कृत के तत्सम शब्दों का तो इतनी अधिकता है कि कहीं-कहीं उनकी कविता हिंदी की न होकर संस्कृत की सी ही प्रतीत होने लगती है। राधा का रूप-वर्णन करते समय देखिए-


आपका...

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