चमगादड़ों की तरह लटकी कहानियाँ
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कुछ कहानियाँ जैसे अटक जाती है आपके मन के खोखे में और वक़्त उसे कारतूस बना देता है। कुछ कहानियाँ और भी बहुत कुछ बन जाती हैं जैसे मवाद, जो बाहर वाले से ज्यादा खुद के नथुनों में गंध भरती है और कुछ कहानियां बन जाती है चंदे के खानों की बाहरी चौहद्दी जहां घूमते रहने को न चाहते हुए भी मंजूर करना होता है।
कुछ कहानियाँ छत में लटका हुआ फानूस भी बन जाती हैं, जिन्हें केवल लादे गए वक़्त को काटने के लिए घूरा जा सकता है। कुछ कहानियां बॉर्नविटा की खाली बोतल भी बन जाती हैं जिनमे उडद की दाल भरी जा चुकी है। कुछ कहानियां किराने की दुकान की गद्दी पर बैठ जाती हैं जो हर निकलने वाले को जबरन की मुस्कान फेंक कर मारती हैं। कुछ कहानियां बहीखाते के आंकड़े भी बन जाती हैं।
खैर एक कहानी को क्या बन जाना चाहिए? मुझे नही पता ! क्योंकि मैं कोई कहानीकार रूपी चित्रगुप्त नही हूँ जो कहानियों के नियति का फैसला करूँ। लेकिन कहानियों का जो मर्जी चाहे बन जाना मुझे अच्छा लगता है। कभी कभी मैं सोचता हूँ कि कहानियाँ क्या कभी बटुए में रखी नोट बन सकती हैं, क्या कहानियाँ माँ की दवाई बन सकती है, पत्नी की साड़ी या फिर बच्चों के खिलौने। कहानियों को हमेशा प्रश्न बनना अच्छा लगता है, क्यों कहानियाँ प्रश्नों के जवाब नही बनती?
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