कविता

Originally published in hi
Reactions 0
539
Aman G Mishra
Aman G Mishra 24 Aug, 2019 | 1 min read

*एक अच्छी कविता प्राप्त हुई है, जो मनन योग्य है।*


जाने क्यूँ,

अब शर्म से,

चेहरे गुलाब नहीं होते।

जाने क्यूँ,

अब मस्त मौला मिजाज नहीं होते।


पहले बता दिया करते थे, 

दिल की बातें।

जाने क्यूँ,

अब चेहरे,

खुली किताब नहीं होते।


सुना है,

बिन कहे,

दिल की बात,

समझ लेते थे।

गले लगते ही,

दोस्त हालात,

समझ लेते थे।


तब ना फेस बुक था,

ना स्मार्ट फ़ोन,

ना ट्विटर अकाउंट,

एक चिट्टी से ही,

दिलों के जज्बात,

समझ लेते थे।


सोचता हूँ,

हम कहाँ से कहाँ आगए,

व्यावहारिकता सोचते सोचते,

भावनाओं को खा गये।


अब भाई भाई से,

समस्या का समाधान,

कहाँ पूछता है,

अब बेटा बाप से,

उलझनों का निदान,

कहाँ पूछता है,

बेटी नहीं पूछती,

माँ से गृहस्थी के सलीके,

अब कौन गुरु के,

चरणों में बैठकर,

ज्ञान की परिभाषा सीखता है।


परियों की बातें,

अब किसे भाती है,

अपनों की याद,

अब किसे रुलाती है,

अब कौन,

गरीब को सखा बताता है,

अब कहाँ,

दोस्त दोस्त को गले लगाता है


जिन्दगी में,

हम केवल व्यावहारिक हो गये हैं,

मशीन बन गए हैं हम सब,

इंसान जाने कहाँ खो गये हैं!


इंसान जाने कहां खो गये हैं....!

0 likes

Published By

Aman G Mishra

aman

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

Please Login or Create a free account to comment.