गुरु-दक्षिणा
हनुमान जब कुछ बड़े हुए तो वानरराज केसरी को उनकी शिक्षा-दीक्षा की चिंता सताने लगी। वे हनुमान को विद्यार्जन के लिए एक योग्य गुरु के पास भेजना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अपने आस-पास का सारा क्षेत्र छान मारा, परंतु ऐसा कोई भी गुरु उन्हें नहीं मिला।
एक दिन वे इसी चिंता में डूबे थे कि तभी देवर्षि नारद का वहाँ आगमन हुआ। वानरराज केसरी ने उनका भरपूर आदर-सत्कार किया। नारदजी को केसरी के चेहरे पर चिंता के बादल मँडराते दिखाई दिए। उन्होंने इसका कारण पूछा। तब केसरी विनम्र स्वर में बोले, ‘‘देवर्षि, आप तो त्रिकालदर्शी हैं। आपसे भला कौन सी बात छिपी है! मैं हनुमान की शिक्षा-दीक्षा को लेकर बहुत चिंतित हूँ। विद्यार्जन के लिए उसे किस योग्य गुरु के पास भेजूँ, यही मेरी चिंता का मुख्य कारण है। देवर्षि, अब आप ही मेरा मार्गदर्शन कीजिए।’’
देवर्षि नारद हँसते हुए बोले, ‘‘हे वानरराज! तुमने हनुमान के लिए गुरु की खोज ही गलत दिशा में की है। इस पृथ्वी पर कोई भी हनुमान से अधिक बुद्धिमान और श्रेष्ठ नहीं है। इसलिए तुम्हें अभी तक कोई योग्य गुरु नहीं मिला। वानरराज केसरीमेरी दृष्टि में केवल भगवान् सूर्यदेव ही हनुमान के गुरु बनने योग्य हैं। इसलिए तुम उनकी शरण में जाओ। वे भी हनुमान जैसा शिष्य पाकर धन्य हो जाएँगे।’’
केसरी उसी दिन भगवान् सूर्य के पास गए और उनसे हनुमान का गुरु बनने की प्रार्थना की। सूर्यदेव इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए। हनुमान सूर्यलोक में रहते हुए विद्यार्जन करने लगे। सूर्यदेव ने उन्हें शात्रों के साथ-साथ अत्र-शत्र संचालन की शिक्षा भी दी। उनके पराक्रम और बल के समक्ष देवगण भी नतमस्तक होने लगे। इस प्रकार अनेक वर्ष बीत गए।
एक दिन सूर्यदेव ने हनुमान को अपने पास बुलाकर कहा, ‘‘वत्स हनुमान! आज तुम्हारी शिक्षा पूर्ण हुई। मैंने अपना संपूर्ण अर्जित ज्ञान तुम्हें प्रदान कर दिया है। तुम्हें देने के लिए मेरे पास कुछ शेष नहीं बचा। इसलिए अब तुम पृथ्वीलोक जाने की तैयारी करो।’’
गुरु की बात सुनकर कुछ देर के लिए हनुमान भाव-विह्वल हो गए। तदनंतर वे स्वयं को सँभालते हुए बोले, ‘‘जैसी आपकी आज्ञा गुरुदेव! आपने सदा मुझे अपने पुत्र के समान समझकर दुर्लभ ज्ञान प्रदान किया है। इसके लिए मैं सदैव आपका ऋणी रहूँगा। परंतु फिर भी, मैं अपने शिष्य होने के कर्तव्य से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए गुरु-दक्षिणा दिए बिना मैं यहाँ से नहीं जा सकता। आप गुरु-दक्षिणा लेकर मुझे कृतार्थ करें।’’
सूर्यदेव ने हनुमान को अनेक प्रकार से समझाने की कोशिश की, लेकिन हनुमान ने गुरु-दक्षिणा दिए बिना वापस जाने से इनकार कर दिया। तब सूर्यदेव प्रसन्न होकर बोले, ‘‘वत्स! तुम्हारी गुरुभक्ति से मैं संतुष्ट हूँ। वत्स! पृथ्वी पर किष्किंधा में मेरा पुत्र सुग्रीव रहता है। आनेवाले समय में उसे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता पड़ेगी। इसलिए तुम सदैव उसकी रक्षा करना। यही मेरी गुरु-दक्षिणा होगी।’’
हनुमान ने सूर्यदेव को वचन दिया कि वे सुग्रीव के साथ रहते हुए सदैव उसकी रक्षा करेंगे। इसके बाद वे घर लौट आए। कुछ दिन माता-पिता के साथ रहने के बाद हनुमान अपने वचन को पूर्ण करने के लिए सुग्रीव के पास चले गए। इस प्रकार हनुमान ने गुरु को दिए वचन का जीवन भर अनुपालन किया।
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