समाज में ब्राह्मणों का स्थान इतना उच्च रहा कि बाकी सब तुच्छ रहा. ये स्थान ब्राह्मणों को छोड़कर बाकी सभी के त्याग और तपस्याओं का नतीजा था. ये त्याग और तपस्याएँ चुनी हुई नहीं थीं. थोपी हुईं थीं.
ऊना में चमड़ा खींचने वालों की बेल्टों से जब चमड़ी खींची गई तो ये ब्राह्मणों की तपस्या नहीं थी. ये उन दलित लड़कों का त्याग रहा होगा, जिन्हें उस वक़्त पिटने में भी शायद अपनी कुछ ग़लती नज़र आ रही होगी. उनकी आंखों में दिखती ये गलत गलती ब्राह्मणों की तपस्याओं का नतीजा था. वो तपस्या, जो जय परशुराम कहने के गुमान से भरी है.
ब्राह्मणों का स्थान इतना ऊंचा हुआ कि मांएं छोटी लगने लगीं. मां की गर्दन काटने वाले पूजे जाने लगे. पोस्टरों, गाड़ियों और चुनावी मंचों के नारों में जय परशुराम गूंजने लगा. ऐसे लोगों को 'बैठ जाइए, बैठ जाइए' कहकर जब चुप कराने की ज़रूरत थी, तब सम्मान में तालियां बजाई जा रही थीं.
'छोटी जाति' के लोगों को कैसे उनकी औकात दिखानी है. दलितों की लाश किस सवर्ण की ज़मीन से नहीं जानी है. ये बात जो सच है कि इस मामले में ब्राह्मण समाज हमेशा से मार्गदर्शक की भूमिका में रहा. इस समाज ने बताया कि दलित कहां जाएंगे, कहां बैठेंगे, इनके बर्तन घर के बाहर कहां रखे जाएंगे. मज़दूरी करने आएं तो दाल इन्हें इतनी ऊपर से दो कि थाली से बर्तन छू न पाए...तो क्या हुआ जो थाली से ज़्यादा गर्म दाल की छींटे इनके पैरों पर जा गिरें. इस 'मार्गदर्शक समाज' को मालूम था कि दलितों को छूना मना है लेकिन इनकी बेटियां अंग विशेष से छुई जा सकती हैं. यही सोचकर ये भूसा डालने आई बच्चियों को कच्ची अमियां समझकर भूसे में गर्म करते रहे. हरी अमियां जब आम होतीं तो लोग पूरा गूदा खाकर गुठली फेंक देते. ऐसी गुठलियों को फेंके जाने को माननीयों और मानने वालों ने त्याग माना.
सच तो ये था कि ऐसी महासभाओं ने सिवाय बौद्धिकमैथून के कुछ नहीं किया और जहां कुछ करने की ज़रूरत थी, वहां ये लोग पिछड़ गए. आगे आ गए राजीव गोस्वामी जैसे लड़के, जो इन महासभाओं के आह्वान से जलाए यज्ञों में 'वीपी मुर्दाबाद' कहते हुए कूद गए. बाप-दादों की सच्ची कहानियां और करतूतें पीछे रह गईं.
अभी कुछ गिनती के लोग याद रखना चाहते हैं. ये सारी कहानियां, ऊना की चीखें. अपने नाम के दूसरे हिस्से पर न कोई गुमान करते हुए, न कोई अफसोस करते हुए...ये लोग माफ़ी चाहते हैं. अपने बाप दादों की कहानियां सुनाना चाहते हैं.
मगर जैसा कि माई नेम इज ख़ान में शाहरुख ख़ान ने कहा है-अम्मी जान कहती हैं इस दुनिया में सिर्फ़ दो तरह के लोग हैं, अच्छे लोग और बुरे लोग.
ठीक इसी तर्ज पर अब हर तरफ़ ब्राह्मण पाए जा रहे हैं. ये वाले ब्राह्मण 'जय भीम' भी कहते हैं और 'जय परशुराम' भी.
क्योंकि इन्हें ये ईर्ष्या है कि एक कहानी कोई और कैसे सुनाए दे रहा है, इससे तो पूरा आंदोलन ख़त्म हो जाएगा? दलित की कहानी ब्राह्मण हीरो सुनाएं तो इन्हें चुन्ने काटने लगते हैं. इस हीरो के ब्राह्मण होने की पहचान विचारों और आचरण से नहीं, सरनेम से की गई. इस तरह जो ब्राह्मण नहीं थे, वो भी ब्राह्मण हो गए. फुटेज छिनने और असल में बराबरी को आते देख अपना बाज़ार ख़त्म होने का भय लिए.
ऐसे लोग डरते हैं, उन कथित ब्राह्मणों की कहानियों के सामने आने से...जिनके हिस्से भी 'दलित' होना आया. पर...ये लोग दलित नहीं कहलाए.
एक शब्द का 10 पैसा लेते हुए ये सालों साल अनुवाद करते रहे. दलितों की पीड़ाओं वाली कहानियों के कई अनुवाद जब पूरे हुए, तब ऐसे ब्राह्मणों के हाथ में थाली खरीदने जितने पैसे आए थे.
कुछ ने अपनी कमियों को ब्राह्मण या दलित होने से देख लिया. अपनी मेहनत की गुंजाइशों में संघर्ष की स्याही भर दी. फिर जो लिखा गया वो सब इस कदर दिल दुखाने वाला रहा कि दूसरे किनारे से होती शुरुआती छोटी कोशिशें भी नाव छोड़कर भाग गईं.
ऐसे लोगों की कहानी भी पीछे नहीं रहनी चाहिए. पर अभी सालों साल जिनकी कहानियां सुनाई जाने की ज़रूरत है वो सबको सुनाने दो. जय परशुराम, जय भीम जैसे नारे लगाते चुनावी मंचों को गिराए जाने दो. नारों से पेट नहीं भरता.
वरना सालों साल यही चलता रहेगा कि जो
जय परशुराम के फेवर में हैं वो बोले- AYES
वो फेवर में नहीं हैं वो भी बोलें- AYES
क्यों स्पीकर साहेब?
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