स्वर्णपुरी लंका
एक बार पवनदेव कुछ अप्सराओं के साथ भमण कर रहे थे। उनके मदमाते वेग के समक्ष प्रत्येक वस्तु तिनके की भाँति उड़कर उन्हें मार्ग दे रही थी। सहसा उनके मार्ग में सुमेरु पर्वत आ गया। मदमस्त हो रहे पवनदेव ने सुमेरु पर्वत को मार्ग से हटने अथवा झुककर मार्ग देने का आदेश दिया। सुमेरु ने उनकी आज्ञा मानने से इनकार कर दिया। पवनदेव ने शक्ति के अहंकार में भरकर प्रंड रूप धारण कर लिया; परंतु वे किसी भी तरह सुमेरु को उसके स्थान से डिगा न सके। अंत में पराजित होकर वे वहाँ से प्रस्थान कर गए। उन्होंने मन-ही-मन निश्चय कर लिया था कि उचित अवसर आने पर वे सुमेरु से अपने इस अपमान का प्रतिशोध अवश्य लेंगे।
कुछ दिनों के बाद वसंतगिरि ने एक सभा का आयोजन कर सभी पर्वतों को आमंत्रित किया। इस अवसर पर सभी की सहमति से सुमेरु को सभापति चुना गया। इस उपलक्ष्य में स्वर्ण-निर्मित एक विशाल मुकुट सुमेरु के सिर पर सुशोभित कर उसका सम्मान किया गया। एक कोने में छिपकर पवनदेव ने भी सुमेरु का यह सम्मान देखा। उन्हें उस दिन की याद हो आई, जब सुमेरु के कारण उन्हें अपमानित होना पड़ा था। आज उपयुक्त अवसर था अपमान के प्रतिशोध का।
देखते-ही-देखते पवनदेव ने प्रंड आँधी का रूप धारण कर लिया। चारों ओर घना अंधकार छा गया। सभा का मंडप उखड़ गया। सभी सुरक्षित स्थानों की ओर दौड़ पड़े। इसी भाग-दौड़ में अवसर पाकर पवनदेव ने सुमेरु का मुकुट चुरा लिया और उसे लेकर तेजी से दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े।
दक्षिण दिशा के अंतिम छोर पर विशाल समुद्र के मध्य एक छोटा सा टापू था। वहाँ पहुँचकर पवनदेव ने देवशिल्पी विश्वकर्मा का आह्वान किया और उस मुकुट के स्वर्ण से वहाँ एक विशाल नगरी बनाने का आदेश दिया। कुछ ही दिनों में विश्वकर्मा ने उस टापू पर स्वर्ण से निर्मित एक विशाल नगरी का निर्माण-कार्य पूरा कर दिया। इस स्वर्णनगरी का प्रत्येक महल देवराज इंद्र के महल से भी अधिक सुंदर और विशाल था। चूँकि यह नगरी पूरी तरह से स्वर्ण-निर्मित थी, इसलिए इसका नाम ‘स्वर्णपुरी’ रखा गया। बाद में यही नगरी ‘लंका’ के नाम से विख्यात हुई।
एक दिन माली, सुमाली और माल्यवान् नामक तीन दैत्य भमण करते हुए दक्षिण दिशा की ओर आ निकले। उन्होंने जब स्वर्णपुरी को देखा तो उनका मन उसे पाने के लिए उद्यत हो उठा। तीनों दैत्यों ने कठोर तप द्वारा बह्माजी को प्रसन्न कर उनसे लंकापुरी माँग ली। अब तीनों दैत्य अपने परिवार और सेवक-सेविकाओं के साथ लंका में रहने लगे। इस प्रकार लंका देवताओं द्वारा निर्मित होने के बाद भी राक्षसों का गढ़ बन गई।
बाद में जब दैत्यों के अत्याचार बढ़ने लगे, तब संसार के कल्याण के लिए भगवान् विष्णु ने सुमाली का वध कर दिया। सुमाली-वध से भयभीत होकर माली और माल्यवान् सपरिवार पाताल में जा छिपे। उनके बाद लंका पुनः खाली हो गई। तब बह्माजी ने महर्षि विश्रवा के पुत्र कुबेर को लंका नगरी सौंप दी। कुबेर ने लंका को अपनी राजधानी बनाया और यक्ष-सेवकों के साथ वहीं निवास करने लगा। बाद में राक्षसराज रावण ने कुबेर को पराजित कर लंका को पुनः राक्षसों के आधिपत्य में कर लिया।
ऐसी ही रोमांचक कहनियाँ, जो कि भारतीय सनातन वैदिक इतिहास में अपना विशेष महत्व रखती हैं, इनमें आज के परिप्रेक्ष्य से भी देखा जाए तो काफी चीजें सीखी जा सकती हैं इसलिए ऐसा ज्ञान जो कहीं इतिहास की परतों में दवा हुआ है उसे सामने, दुनिया के समक्ष प्रस्तुत करने का दायित्व भी हमारे ही कंधो पर है इसलिए मैं ने आप सब के समक्ष ये कहानी प्रस्तुत की है। ऐसी ही कहानियों से जुड़े रहें वैदिक ज्ञान पद्धति से जुड़े रहें ।
धन्यवाद!
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