स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य
अनेक इतिहासविद मानते हैं कि स्कन्दगुप्त का राज्यारोहण बड़े भाई पुरुगुप्त और सौतेली माता राजामाता अनन्तादेवी के कारण खटाई में पड़ गया था। स्कन्दगुप्त की माता देवकी संभवतः नजरबंद थीं या उनकी हालत ठीक नहीं थी। क्योंकि इतिहास के स्रोत संकेत देते हैं कि हूणों पर विजय मिलने के बाद जब स्कन्दगुप्त वापस राजमहल पहुंचा तो संभवतः उसकी अपनी सगी माता देवकी सौतेली बड़ी मां अनन्त देवी के व्यवहार से खिन्न होने के कारण देवकी जैसी अवस्था में ही जीवन व्यतीत कर रही थीं। भितरी अभिलेख में स्कन्दगुप्त की मां का नाम नहीं आया है किन्तु इस बात का ब्यौरा अवश्य मिलता है कि विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुके राज्य को अर्थात देश को उसने अपने बाहुबल से नष्ट होने से बचा लेने के बाद शत्रुओं को परास्त कर वंशलक्ष्मी को पुनः प्रतिष्ठा प्रदान करने जब स्कन्द अपनी मां से मिलने पहुंचा तो उनकी आंखे आंसुओं से भरी थीं।..विलुप्तां वंशलक्ष्मीं भुज-बल-विजितारिर्य्यः प्रतिष्ठाप्य भूयः। और इस विजयश्री के प्राप्त होने, शत्रुओं के विनाश का सुखद समाचार देने वह डबडबायी आंखों वाली अपनी मां के समीप कुछ वैसे ही गया जैसे कि कंस का वध करने के बाद जेल में कैद देवकी से मिलने पहुंचे कृष्ण को मां ने अपने कलेजे से लगा लिया था।...भितरी अभिलेख में यह बात इस श्लोक में लिखी है..जितमिति (शत्रुओं को जीतने के बाद)परितोषान्मातरं सास्र-नेत्त्रां (संतुष्ट होकर अथवा सुखी भाव से डबडबायी या गीली आंखों वाली माता के समीप) हतरिपुरिव कृष्णो देवकीमभ्युपे तः...। ( कंस को मारने के बाद जैसे कृष्ण माता देवकी के गले लग गए थे)। कृष्ण-देवकी के मिलन की कहानी के इस ब्यौरे के आधार पर अनेक इतिहासकार मानते हैं कि स्कन्दगुप्त की माता का नाम भी देवकी ही था, यही कारण है कि शिलालेख में अलग से उनका नाम देने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
भितरी शिलालेख की अनेक पंक्तियां स्कन्दगुप्त की पितृभक्ति के साथ उसकी मातृभक्ति का भी महान परिचय देती हैं। वह जैसे अपने पिता के चरणों की सेवा करता था (पितृपरिगत पादपद्मवर्ती) अर्थात पिता की शरण में जाकर वह उनके चरणों की नित्य सेवा करता था। उसी तरह से स्कन्दगुप्त अपनी मां को भी अत्यधिक प्रेम करता था। स्कन्दगुप्त की मां सम्राट कुमार गुप्त की दूसरी पत्नी थीं। सम्राट कुमारगुप्त की पहली पत्नी राजमाता अनन्तदेवी से उनके पुरुगुप्त और घटोत्कचगुप्त नामक कई पुत्रों के होने का उल्लेख मिलता है। राजमाता अनंतदेवी कुमारगुप्त के गुजर जाने के बाद सबसे बड़े बेटे पुरुगुप्त को ही सम्राट बनाना चाहती थीं किन्तु वह ऐसा निर्णय तत्काल इसलिए नहीं कर सकीं क्योंकि संपूर्ण सेना समेत कुमार गुप्त का छोटा बेटा स्कन्दगुप्त युद्धभूमि में हूणों से मुकाबले में उतर पड़ा था। हूणों से युद्ध लड़ेगा कौन, इस निर्णय में पुरुगुप्त ने संभवतः किसी भयवश स्वयं को पीछे रखा था, इसके विपरीत स्कन्दगुप्त ने स्वयं ही अपने पिता से हूणों के विरुद्ध युद्धभूमि में जाने की आज्ञा मांग ली थी। इतिहास का यही वो निर्णायक बिन्दु था जिस एक निर्णय ने स्कन्दगुप्त को राष्ट्रनायक के रूप में स्थापित कर देने की आधारभूमि तैयार कर दी। देश की रक्षा के लिए वह स्वयं ही उद्यत हुआ अर्थात उठ खड़ा हुआ।...विचलित कुललक्ष्मी स्तंभनायोद्यतेन...। अर्थात जो अपने राज्य और वंशलक्ष्मी को बचाने के लिए स्वयं ही आतुर (उद्यत) हो गया था। वह बगैर किसी के कहे स्वयं ही युद्ध के लिए उठकर खड़ा होने और अटल निर्णय पर अडिग रहने वाला अप्रतिहत वीर था अर्थात जिसका रास्ता रोक सकने वाला कोई और महारथी उस समय भारतवर्ष में नहीं था। जूनागढ़ अभिलेख में लिखा है कि—व्यपेत्य सर्वान्मनुजेंद्रपुत्रां लक्ष्मीः स्वयं यं वरयांचकार। अर्थात अन्य सभी राजकुमारों को छोड़कर राज्यलक्ष्मी ने स्वयं ही स्कन्दगुप्त का चयन किया था। यही कारण है कि भितरी अभिलेख में उसे गुप्तवंशैकवीर अर्थात गुप्त वंश का अद्वितीय वीर नामक संज्ञा प्रदान कर गौरवान्वित किया गया है। जब युद्धभूमि से वह सुरक्षित और विजयी मुद्रा में लौटा तो पुरुगुप्त और राजामाता अनंतादेवी ने जनभावनाओं और सैन्यभावना को समझकर स्वयं ही उसके राजतिलक के लिए रास्ता साफ किया, ऐसा भी अनेक इतिहासकारों का मत है।
स्कन्दगुप्त ने हूण-युद्ध के दौरान पिता की मृत्यु से दुखी अपनी दोनों माताओं को सांत्वना प्रदान की। अपनी सगी मां को गले लगाकर उसने जहां माता की गरिमा की राज्य में पुनःप्रतिष्ठा की वहीं पिता की छाया बनकर सिंहासन पर साथ-साथ बैठती रहीं और राज्यका संचालन करती रहीं बड़ी माता राजामाता अनन्ता देवी को भी पूर्ववत् सम्मान दिया। बड़े भाई पुरुगुप्त, घटोत्कचगुप्त व अन्य भाइयों को भी उनकी गरिमा के अनुरूप राज्य संचालन में प्रमुख भूमिका दी। उसने किसी भी भाई को अधिकार से बर्खास्त नहीं किया क्योंकि उस समय के अनेक अभिलेखों में सभी भाइयों को उल्लेख मिलता है। यहां तक कि स्कन्दगुप्त के बाद उसके उत्तराधिकारी सम्राट के रूप में पुरुगुप्त का नामोल्लेख अनेक इतिहास स्रोत करते हैं। इसका एक संकेत यह भी है कि उत्तराधिकार पर दावे के लिए स्कन्दगुप्त का अपना पुत्र ही नहीं था। स्कन्दगुप्त ने विवाह किया अथवा नहीं, इसका भी कोई ब्यौरा नहीं मिलता है। किसी अभिलेख में स्कन्दगुप्त की पत्नी को लेकर कोई वर्णन नहीं है।
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