सीता-स्वयंवर
मिथिला के राजा जनक परम तपस्वी, प्रतापी, दयालु और प्रजा-वत्सल थे। उनके राज्य में वैभव, न्याय, लक्ष्मी और धर्म का वास था। प्रजा सुखपूर्वक जीवनयापन कर रही थी। एक बार मिथिला में अनेक वर्षों तक मेघों ने जल नहीं बरसाया। इसके फलस्वरूप मिथिला की प्रजा को भयंकर अकाल का सामना करना पड़ा। अकाल ने अनेक लोगों के प्राण हर लिये। चारों ओर अन्न-जल की कमी हो गई। ऐसी विकट स्थिति से निपटने के लिए राजा जनक ने मंत्रियों से परामर्श किया।
मंत्रियों ने कहा, ‘‘राजन्! लगता है, हमारे किसी कार्य से देवराज इंद्र रुष्ट हो गए हैं। इसलिए हमें उनके कोप का सामना करना पड़ रहा है। अतएव हे राजन्! आप यज्ञ करके इंद्र को प्रसन्न करें। उनकी प्रसन्नता राज्य पर वैभव और समृद्धि के रूप में बरसेगी।’’
राजा जनक ने अनेक ऋषि-मुनियों को आमंत्रित कर एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया। वेद-मंत्रों के उच्चारण के साथ यज्ञाग्नि में आहुतियाँ पड़ने लगीं। पूजा-अर्चना से दसों दिशाएँ गुंजायमान होने लगीं।
यज्ञ के अंतिम दिन देवराज इंद्र स्वयं यज्ञाग्नि में से प्रकट हुए और जनक को संबोधित करते हुए बोले, ‘‘राजन्! तुम्हारे यज्ञ से मैं पूर्णतः संतुष्ट हूँ। कल प्रातःकाल तुम खेत में स्वयं हल चलाकर मेरा स्वागत करना। मैं भरपूर वर्षा द्वारा मिथिला के अकाल को समाप्त कर दूँगा।’’ यह कहकर इंद्र अंतर्धान हो गए।
दूसरे दिन प्रातःकाल महाराज जनक खेत में हल चलाने लगे। तभी उनका हल पृथ्वी में दबी किसी वस्तु से टकराया। जब उस स्थान को खोदा गया तो वहाँ से एक संदूक निकला। संदूक में एक नवजात कन्या को देखकर सभी विस्मित रह गए। राजा जनक ने जैसे ही उस कन्या को गोद में लिया, भयंकर गर्जन करते हुए मेघ उमड़ आए और मूसलधार वर्षा होने लगी। देखते-ही-देखते मिथिला पुनः हरी-भरी हो गई।
उसी समय एक आकाशवाणी हुई—‘‘राजा जनक! पृथ्वी के गर्भ से उत्पन्न यह कन्या संसार में ‘सीता’ के नाम से प्रसिद्ध होगी। तुम इसे पुत्री के रूप में स्वीकार करो।’’
तदनंतर सीता को लेकर राजा जनक महल में लौट आए और अपनी रानी सुनयना के साथ उसका लालन-पालन करने लगे।
सीता अत्यंत रूपवती तथा समस्त गुणों से संपन्न थीं। जब वे युवा हुइऔ तो राजा जनक को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। तब उन्होंने एक स्वयंवर का आयोजन किया। इसमें उन्होंने महर्षि परशुराम द्वारा प्रदत्त भगवान् शिव का धनुष रखा और घोषणा करवाई कि जो राजकुमार उस धनुष को उठा लेगा, वही सीता का वरण करेगा। अहल्या-उद्धार के बाद महर्षि विश्वामित्र श्रीराम और लक्ष्मण के साथ मिथिला में थे। जनक ने उन्हें भी स्वयंवर में आमंत्रित किया।
निश्चित दिन स्वयंवर आरंभ हुआ; परंतु उपस्थित सभी राजा धनुष को उठाने में असमर्थ रहे। तब विश्वामित्र की आज्ञा से श्रीराम ने देखते-ही-देखते धनुष को उठा लिया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह तिनके की भाँति टूट गया।
चारों ओर श्रीराम की जय-जयकार होने लगी। जनक की आज्ञा पाकर सीता ने श्रीराम के गले में वरमाला डाल दी। इस प्रकार सीता का विवाह श्रीराम के साथ संपन्न हो गया।
राजा जनक की दूसरी पुत्री उर्मिला का विवाह लक्ष्मण के साथ हुआ, जबकि उनके भाई कुशध्वज की दो पुत्रियों मांडवी और श्रुतकीर्ति के विवाह क्रमशः भरत और शत्रुघ्न के साथ हुए।
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