भ्रातृभक्त भरत
श्रीराम के वनवास का प्रथम पड़ाव शृंगवेरपुर नामक राज्य था। यहाँ निषादराज गुह का शासन था। गुह श्रीराम का अनन्य भक्त था। उसने जब श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के आगमन का समाचार सुना तो उसके हर्ष की सीमा न रही। उसने फल, फूल, कंद इत्यादि से उनकी आवभगत की। वह रात श्रीराम ने वहीं एक वृक्ष के नीचे बिताई। गुह ने उनके लिए पत्तों का बिछौना तैयार कर दिया था, जिस पर श्रीराम और सीता ने विश्राम किया। लक्ष्मण सारी रात जागकर पहरा देते रहे।
अगले दिन श्रीराम ने वटवृक्ष का दूध मँगाकर लक्ष्मण सहित उस दूध से सिर पर जटाएँ बनाइऔ। तत्पश्चात् नाव पर बैठकर गंगा नदी पार की। किनारे पर उतरकर श्रीराम के संकेत पर सीता ने अपनी अँगूठी उतारकर केवट को उतराई के रूप में दी।
केवट ने अँगूठी लौटाते हुए कहा, ‘‘भगवन्! मेरी केवल इतनी विनती है कि जिस प्रकार आज मैंने आपको गंगा नदी पार करवाई है, वैसे ही जब मैं आपके पास आऊँ तब आप मुझे भवसागर पार करवा देना।’’ केवट की बात सुनकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे निर्मल भक्ति का वरदान प्रदान किया।
वहाँ से चलकर वे सभी महर्षि भरद्वाज के आश्रम में पहुँचे। महर्षि भरद्वाज ने उनका यथोचित आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात् श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण ने वहीं निकट के एक वन में पर्णकुटी का निर्माण किया। अब तीनों उसी कुटी में रहने लगे।
इधर राम के वियोग में राजा दशरथ ने प्राण त्याग दिए। उनके दाह-संस्कार के लिए भरत और शत्रुघ्न को अयोध्या बुलाया गया, जो उन दिनों कैकय देश अपनी ननिहाल में रह रहे थे। अयोध्या पहुँचकर जब भरत को सारी घटना ज्ञात हुई तो उनका मन विषाद से भर गया। उन्होंने माँ कैकेयी को तिरस्कृत कर दिया। भरत ने मन-ही-मन निश्चय कर लिया था कि वे श्रीराम, सीता और लक्ष्मण को मनाकर पुनः अयोध्या ले आएँगे। इस संबंध में उन्होंने कुलगुरु वसिष्ठ को भी सूचित कर दिया। सभी ने उनके इस निर्णय का समर्थन किया।
और भरत श्रीराम को वापस लाने के लिए चल पड़े। उनके साथ अयोध्या की प्रजा भी अपने राजा श्रीराम को मनाने चल पड़ी। कैकेयी को अपने किए पर पश्चात्ताप होने लगा था। उसका मन श्रीराम से क्षमा माँगने को हो रहा था। उसने भी भरत का अनुसरण किया। इस प्रकार भरत के साथ-साथ कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, कुलगुरु वसिष्ठ, राजा जनक, अयोध्या के मंत्री सुंत्र-सभी वन की ओर चल पड़े। देख लक्ष्मण के मन में संदेह उत्पन्न हो गया। उन्होंने धनुष धारण कर लिया और श्रीराम से बोले, ‘‘भाताश्री! अयोध्या का सिंहासन पाकर भरत के मन में विद्वेष ने घर कर लिया है। वह सेना लेकर अवश्य ही हमसे युद्ध के लिए आ रहा है। आप सीताजी के साथ यहाँ से दूर चले जाएँ। आज मैं अपने बाणों से अकेले ही उन सबका नाश कर दूँगा!’’
राम मधुर स्वर में बोले, ‘‘लक्ष्मण, भरत हमें अपने प्राणों से भी अधिक प्रेम करता है। वह हमारे अहित की सोच भी नहीं सकता। उसका प्रयोजन कुछ और ही है। तुम थोड़ा धैर्य रखो।’’
तभी भरत वहाँ आ पहुँचे और श्रीराम के पैरों में गिर पड़े। राम ने उन्हें उठाकर गले से लगा लिया। भाइयों का यह मिलन देखकर उपस्थित जनसमूह के नेत्र भर आए। लक्ष्मण का मन ग्लानि से भर उठा। वे आगे बढ़कर भरत के गले लग गए। तत्पश्चात् कैकेयी ने अपने अपराध की क्षमा माँगकर उनसे वापस लौट चलने की प्रार्थना की। परंतु श्रीराम सहमत न हुए। वे पिता को दिए वचन को भंग नहीं करना चाहते थे। सभी ने उन्हें अनेक प्रकार से समझाया, परंतु सब व्यर्थ गया।
अंत में भरत श्रीराम की चरण-पादुकाएँ लेकर अयोध्या लौट आए। उन्होंने वे पादुकाएँ सिंहासन पर सुशोभित कर दीं और स्वयं श्रीराम की भाँति वनवासी बनकर राज्य का संचालन करने लगे। इस प्रकार भरत ने भातृ-प्रेम का असाधारण उदाहरण प्रस्तुत किया।
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