मुई डायरी

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 03 Sep, 2019 | 1 min read

मुई डायरी


"आख़िर क्या है जो तुम दो दिनों से इसमें लिखे जा रही हो? लगता है कुछ बहुत ही उम्दा अनुभव हुए है "दो रातों से चल रहे हमारे झगड़े से क्षुब्ध श्रीमती जी को अपनी डायरी में घुसे हुए देख मैने कुछ बात छेड़नी चाही, पर बात का कुछ विशेष फ़र्क ना पड़ता हुए देख मैने आगे कहा | "कुछ हमें भी बता दो.... हम भी आख़िर हमसफ़र हैं इस जिंदगी में " | "क्यूँ? ये मेरी पर्सनल बात है जो मैं अपनी डायरी में लिखती हूँ", बिना मेरी तरफ देखे ही उन्होने तुनक कर जवाब दिया | " अच्छा, पर्सनल !! ये मुझे पता नहीं था कि आधी उमर साथ साथ निकल जाने के बाद, ज़िदगी के इतने अच्छे बुरे पल साथ देखने के बाद भी कुछ पर्सनल रह जाता है ? इससे तो कहीं बेहतर है कि तुम मुझे ही बता दो, शायद मैं तुम्हारी सोच में थोड़ी मदद ही कर दूं? कह देने से तुम्हारा भी मन हल्का होगा और मुझे भी... " बिना किसी उम्मीद के साथ मैं भी अख़बार में मुँह डाले बोल रहा था " ....कम से कम एक प्याला चाय ही नसीब हो जाए" | "आपसे बात कहने में बस एक ही समस्या है, उसके बाद आप की ही बात ठीक लगती है और मैं खुद को ठगा-सा महसूस करती हूँ.. मेरी डायरी ही अच्छी है.. कम से कम चुपचाप मेरी सुनती तो रहती है" वो उठी और कमरे की तरफ बढ़ी | मैं जानता था कि वो अपनी डायरी छुपाने गई है, पर हैरानी की बात तो ये है कि वो हर बार कोई ना कोई नई जगह ढूँढ लेती थी, एक गुण एक महिला में ही शायद संभव है, तभी तो इतने साल ये डायरी मेरे हाथ नहीं लगी | एक दो बार तो मैने ढूँढने की कोशिश भी की | जाने क्यूँ जो चीज़ आपसे छुपाई जाती ही उसी को ढूँढने में आपको बड़ा आनंद आता है.. उसके बाद श्रीमती जी ने अपनी डायरी कभी अपने ऑफीस में रखी या घर पर, मुझे खुद नहीं पता चलता, बहरहाल सुबह की चाय की चिंता दूर होती लग रही थी, श्रीमती जी किचन की तरफ बढ़ रही थी |


"मुई ये छुट्टियाँ नहीं होनी चाहिए, वैसे भी तो चाय बनाते हो ना, छुट्टी के दिन क्यूँ मुझ पर छोड़ देते हो ?" जाते-जाते उन्होने कहा | वैसे किचन में खड़ी श्रीमती जी से बात करने का मज़ा ही कुछ और है.. झिड़कियाँ भी चल रही होती हैं और आप जानते भी हो कि वो आपके लिए ही कुछ कर रही होती है, अधेड़ उमर की जोड़ी शायद इसी तरह से अपनी दिनचर्या बिताती है, कभी कुछ मीठा, कुछ नमकीन बोल कर, कभी पल में लड़ कर, फिर कुछ काम बता दिया, कुछ भूली हुई चीज़े याद दिला दी और दवाइयों का समय जैसे फिर दोनो को निकट ले आता है | "मुई छुट्टियाँ !!" हंसते हुए मैने कहा "छुट्टियों में ही तो तुम्हारे हाथ की चाय हमें मिलती है वरना बाकी दिन तो बस ओफ्फिस के चक्करों में ही निकल जाता है, एक-आध दिन अगर मुझे मिल जाता है तुम्हारी चाय की तारीफ के लिए तो इसमें हर्ज ही क्या है या आजकल तुम्हे मेरा तारीफ करना पसंद नहीं? वैसे तुम अपनी "मुई डायरी" में जो मुझसे छुपा-छुपा कर लिखती हो वो ? मेरी छुट्टियाँ मुई हुई पड़ी है तुम्हारे लिए बस ... "


"अच्छा छोड़ो ये सब, बिजली का बिल रखा है अलमारी में, वो भर देना याद से, मुझे बाजार जाना है अभी सरोज के साथ, दोस्तों के साथ तफ़री का समय ही नहीं मिलता आजकल तो, दो तीन घंटे में लौटूँगी, पीछे से वो धोबी आएगा...." बस उनके 'इंस्ट्रक्शंस' शुरू हो चुके थे... और मेरे पास एक कारगर जवाब था..... अगर कहीं कुछ छूट जाए तो... "...... रमा की तबीयत ठीक नही, वो नही आएगी, किसी और काम-वाली को भेज रही है, तो कमरे में मत बैठ जाना... सुन रहे हो...." वो चलते-चलते बताती जा रही थी... "यार.. सब काम लिख जाओ कागज पर.. कहीं कुछ भूल गया तो बाद में कहोगी..." मैने अपना राम-बान छोड़ दिया था...पर...सेर को कभी कभी सवा सेर भी मिल जाते है.. "ये लो....." आहिस्ता से, पास ही में खड़े होकर, एक पल चुप्पी साधते हुए, एक कागज की पर्ची टेबल पर चिपकाते हुए बोली " सारे काम लिख दिए है, पहले से" बड़ी कुटिल सी मुस्कान के साथ विजेता वाले स्वर में चाय रखते हुए वो कह रही थी | "अब ठीक है?" उनकी मुस्कान मेरा राम-बान 'फेल' कर दे रही थी, पुरुष मद टूटने से शायद यही महसूस होता होगा जो मुझे हो रहा था |


अचानक ही अख़बार नीरस हो गया था.. एक दो चाय की चुस्की लेने के बाद, मन बदलने के लिए थोड़ा टीवी चला लिया.. पर इस क्षोभ से निकलना आसान नहीं होता... इसी चक्कर में चाय कुर्ते पर गिर गई.. कहीं श्रीमती जी की नज़र ना पड़े तो मैने तुरंत छुपा लिया...अभी एक और लेक्चर शुरू हो जाएगा... तुरंत कमरे की तरफ गया कुर्ता बदलने...मैं हमेशा से कोई भी कुर्ता एक नही लेता, जोड़ी में लेता हूँ, एक ही रंग एक ही 'साइज़', सब कुछ 'सेम', एक ही तरह के दो कुर्ते खरीदने की मेरी आदत ने मुझे कई बार बचाया है, सोचा इसी रंग वाला दूसरा पहन लूँगा.. और किसी को पता नही चलेगा.. अलमारी खोली और कुर्ते को जैसे ही बाहर निकाला उसमें लिपटी श्रीमती जी की 'डायरी' गिर पड़ी...साथ ही सोच का झंझावात भी.. पता चल गया था कि इतने समय ये डायरी मुझसे कैसे छुपी रही.. तुरंत कुर्ता बदला और डायरी उठाई ही थी कि इतने में ही श्रीमती जी भी आ गई.. और स्थिति काटो तो खून नहीं जैसी हो गई.. .सालों की उलझन आज दूर हो गई थी... "मुई डायरी" दोनों ने कहा और दोनो मुस्कुरा उठे.. |

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