ताड़का और मारीच
सुकेतु एक धर्मात्मा, तपस्वी और दयालु राजा थे। यद्यपि उनके विवाह को अनेक वर्ष बीत गए थे, तथापि उन्हें अभी तक संतान का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। इसलिए वे सदैव चिंतित रहते थे। एक बार उनके महल में एक ऋषि का आगमन हुआ। सुकेतु ने उनका यथोचित आदर-सत्कार किया।
कुछ दिन वहाँ रहने के बाद जब ऋषि जाने लगे तो उन्होंने सुकेतु से कहा, ‘‘राजन्! तुम्हारे अतिथि-सत्कार से मैं बहुत संतुष्ट हूँ। तुमने पूरी निष्ठा से मेरी सेवा की है। अब मेरे जाने का समय आ गया है। परंतु जाने से पूर्व मैं उस दुख के नाश का उपाय बताना चाहता हूँ, जिससे तुम दिन-रात घिरे रहते हो। राजन्! यदि तुम ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लो तो वे अवश्य ही तुम्हें संतान प्रदान करेंगे। तुम तपस्या द्वारा उनसे वरदान प्राप्त करो।’’ यह कहकर ऋषि वहाँ से चले गए।
इधर सुकेतु ने अपनी पत्नी को ऋषि की बात बताई और उसी दिन तपस्या करने के लिए वन में चले गए। उन्होंने अनेक वर्षों तक कठोर तप किया। अंत में उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी साक्षात् प्रकट हुए और वर माँगने को कहा। सुकेतु ने अपनी इच्छा प्रकट की। ब्रह्माजी कुछ क्षण के लिए ध्यान-मग्न हो गए। तदनंतर सुकेतु को समझाते हुए बोले, ‘‘वत्स! तुम्हारे भाग्य में पुत्र का सुख नहीं है। लेकिन मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हूँ। इसलिए पुत्र के स्थान पर मैं तुम्हें एक दिव्य कन्या-प्राप्ति का वरदान देता हूँ। तुम्हारी वह कन्या पुत्रों से भी बढ़कर होगी। उसमें सहस्रों हाथियों का बल होगा।’’
‘‘जैसी आपकी आज्ञा, परमपिता!’’ यह कहकर सुकेतु ने ब्रह्माजी का वर स्वीकार कर लिया।
उचित समय पर सुकेतु की पत्नी ने एक कन्या को जन्म दिया। जन्म लेते ही उसकी हुंकार से तीनों लोक काँप उठे, आकाश में बिजलियाँ तड़तड़ाने लगीं। यह सब देखकर सुकेतु ने उसका नाम ‘ताड़का’ रख दिया। ताड़का अत्यंत विशालकाय तथा शक्तिशाली थी। इसलिए जब वह विवाह योग्य हुई तो कोई भी राजकुमार उससे विवाह करने को तैयार न हुआ। तब सुकेतु ने उसका विवाह सुंद नामक दैत्य से कर दिया, जो जंभासुर का पुत्र था। विवाह के उपरांत ताड़का ने एक पुत्र को जन्म दिया, जो उसी के समान परम शक्तिशाली था। उसका नाम ‘मारीच’ रखा गया। मारीच बड़ा मायावी था। वह तरह-तरह के रूप धारण करने में दक्ष था।
सुंद के साथ रहते हुए ताड़का भी राक्षसी प्रवृत्ति की हो गई। वह अपने पति और पुत्र के साथ वन में रहनेवाले ऋषि-मुनियों पर अत्याचार करने लगी। उसने शक्ति के अहंकार में भरकर सारे वन को नष्ट कर डाला। जब उसके अत्याचार बढ़ने लगे तब महर्षि विश्वामित्र अयोध्या के राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण को लेकर वहाँ आए।
विश्वामित्र द्वारा प्रेरित किए जाने पर श्रीराम ने ताड़का को युद्ध के लिए ललकारा। ललकार सुनकर ताड़का अपने पुत्र मारीच के साथ दौड़ती हुई आई और राम-लक्ष्मण पर पत्थरों की वर्षा करने लगी। तब श्रीराम ने एक बाण मारकर ताड़का का अंत कर दिया, जबकि एक बाण से मारीच को मीलों दूर समुद्र के किनारे पर फेंक दिया। मारीच वहीं रहते हुए भगवान् श्रीराम की भक्ति में लीन हो गया।
इस प्रकार ताड़का को मारकर भगवान् श्रीराम ने ऋषि-मुनियों की रक्षा की।
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