क्या आपको ऐसा नहीं लगता जैसी इसी एक बड़ी भूमिका के लिए प्रकृति ने पूरे जीवन कृष्ण से अभ्यास करवाया था मोह से मुक्त होने का? यह प्रकृति की कितनी अनूठी व्यवस्था है की वह उपयुक्त भूमिका के लिए नायकों को धीरे-धीरे गढ़ती रहती है चुनती रहती है।
गीता किसी ईश्वरीय अवतार का संचित थोथा-दर्शन भर नहीं है बल्कि वह कृष्ण के जीवनभर के अनुभवों से अर्जित ज्ञान है। 'आत्मा न पैदा होती है न मरती है।" यह पवित्र वक्तव्य क्या किसी को युद्ध के लिए भड़काने के लिए रचा गया होगा? बिल्कुल नहीं। यह आक्रमकता से उपजा वाक्य है ही नहीं। यह प्रेम की हद से उपजा वाक्य है। क्या यह स्वाभाविक नहीं लगता की यह वाक्य प्रेम और कर्तव्य के बीच झूलते कान्हा ने राधा से बिछोह के समय सोचा हो? "एक ही तो आत्मा है मुझमें और राधा में फिर दूर कैसे हुए, बिछोह कैसे हुआ?"
कृष्ण ने प्रतिज्ञा भी तोड़ी, उन भीष्म के आगे जिन्होंने सारे जीवन अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी। भीष्म की उस प्रतिज्ञा का 'भारतवर्ष' ने बड़ा खामियाजा भुगता और धृतराष्ट्र जैसे अयोग्य को सत्ता मिल गयी। क्या कृष्ण भीष्म के आगे प्रतिज्ञा तोड़कर भीष्म को यह नहीं समझा रहे थे की 'सामाजिक-हित' के आगे 'व्यक्तिगत-हठ' की बलि देना ही धर्म है।
कृष्ण की सबसे बड़ी बात मुझे लगती है की वे 'कृष्ण' होने के भाव से भी मुक्त हैं। कहते हैं न 'सेल्फलेस'। वरना कौन होगा जो इमेज की परवाह न करते हुए युद्ध के मैदान से भाग खड़ा होगा, कौन होगा जो युद्धिष्ठिर के यज्ञ में जूठन उठाने का काम अपने जिम्मे लेगा। कौन होगा जो गर्दन काटने के लिए सौ गाली पूरी होने की राह देखेगा। कौन होगा जो किसी निर्वासित राजकुमार का सारथी बनेगा। कृष्ण स्वयं अकृष्ण भी हैं और विकृष्ण भी कई बार तो प्रतिकृष्ण भी।
कृष्ण के पूर्ववर्ती महापुरुषों हरिश्चंद्र और राम ने सत्य और मर्यादा की स्थापना की थी किंतु जैसा कि होता ही है समय के साथ हर अच्छाई दूषित होती चली जाती है और उसे परिसंस्कार की आवश्यकता होती है। कृष्ण ने सत्य और अहिंसा के इन दोनों सत्वों में 'विवेक' नाम का तत्व मिलाकर 'नीति' की सृष्टि की। जो बाद के भारत को कृष्ण की सबसे बड़ी देन है।
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