राम और परशुराम
महर्षि जमदग्नि के पुत्र परशुराम को भगवान् विष्णु का अवतार कहा गया है। जन्म से ही वे परम तपस्वी, तेजस्वी और पराक्रमी थे। उनका जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ था, किंतु उनमें क्षत्रिय गुणों का आधिक्य था। हैहयवंशी राजकुमारों ने जब उनके पिता महर्षि जमदग्नि की हत्या कर दी थी, तब क्रोधित होकर उन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियविहीन कर डाला था। उनके साहस और पराक्रम के समक्ष देवगण भी भयभीत रहते थे। भगवान् शिव परशुराम के आराध्य देव थे। एक बार वे शिवजी के दर्शन हेतु कैलास पर गए। वहाँ द्वार पर नियुक्त गणेशजी ने उनका मार्ग रोक लिया। इससे क्रोधित होकर उन्होंने अपने फरसे से भगवान् गणेश का एक दाँत तोड़ दिया था।
परशुराम ने कठोर तपस्या द्वारा भगवान् शिव को प्रसन्न किया। तब वर-स्वरूप शिवजी ने उन्हें अपना दिव्य धनुष प्रदान किया था, जिसे उन्होंने राजा जनक को सौंप दिया। जनक ने उसी दिव्य धनुष को स्वयंवर में रखा था।
श्रीराम से जब वह दिव्य धनुष टूट गया तो उसके भयंकर गर्जन से तीनों लोक काँप उठे। उस समय परशुराम हिमालय पर तपस्या में लीन थे। भयंकर गर्जन सुनकर वे समझ गए कि शिव-धनुष को किसी ने तोड़ दिया है। वे उसी समय तमतमाते हुए जनक की सभा में जा पहुँचे और श्रीराम को ललकारते हुए बोले, ‘‘राम! तुमने इस दिव्य धनुष को तोड़कर भगवान् शिव का अपमान किया है। तुम्हें इस धृष्टता के लिए दंडित करना आवश्यक है। मैं तुम्हें जनक और मिथिला सहित सबको जलाकर भस्म कर दूँगा!’’
ललकार सुनकर लक्ष्मण से न रहा गया। प्रत्युत्तर में वे भी परशुराम को कटु वचन कहते हुए युद्ध के लिए तत्पर हो गए। तब श्रीराम प्रेमपूर्वक उन्हें समझाते हुए बोले, ‘‘लक्ष्मण! परशुराम हमारे लिए परम पूजनीय हैं। इनसे युद्ध की बात भी सोचना अशोभनीय है। इसलिए अनुज! धैर्य धारण करो। इन परम तेजस्वी मुनि का क्रोध भी हमारे लिए अमृत के समान है।’’ तत्पश्चात् वे परशुराम से बोले, ‘‘मुनिवर! इस अबोध बालक को क्षमा कर दें। आप तो दया के सागर हैं। इस संसार में भला आपसे बढ़कर श्रेष्ठ कौन हो सकता है! यदि आप मुझे दोषी समझते हैं तो जो दंड देना चाहें, दे दीजिए। मुझे आपका प्रत्येक दंड स्वीकार है।’’
श्रीराम के मधुर वचन सुनकर परशुराम विस्मित रह गए। तदनंतर वे शांत स्वर में बोले, ‘‘राम! तुम अवश्य ही कोई अवतारी पुरुष हो। जिस शिव-धनुष को मेरे, जनक और सीता के अतिरिक्त कोई हिला भी नहीं सकता था, तुमने एक तिनके की भाँति उसे तोड़ डाला। परंतु मेरा मन अभी भी तुम पर अविश्वास कर रहा है। अतएव हे राम! आप मेरे धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर मेरे अविश्वास को दूर कर दें।’’ यह कहकर परशुराम ने अपना धनुष श्रीराम को सौंप दिया। श्रीराम ने देखते-ही-देखते धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर परशुराम के मन के सभी संदेह दूर कर दिए। तत्पश्चात् राम, सीता और लक्ष्मण को आशीर्वाद देकर परशुराम पुनः हिमालय लौट गए। परशुराम को अमरता का वरदान प्राप्त है। कहा जाता है कि वे आज भी कैलास पर भगवान् शिव की आराधना में लीन हैं।
भगवान श्री राम एवं परशुराम की कथा और दोनों का जीवन चरित्र वर्तमान एवं आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श स्वरूप रहेगा।
इसलिए सनातन वैदिक पद्धति को उस परंपरा को आज की पीढ़ी के समक्ष प्रस्तुत करने का दायित्व हमें ही संभालना होगा। जिससे हम कितने ही ऊंचाई पर पहुँच जाएं पर अपनी जड़ें अपने वैदिक संस्कार न भूलें।
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