महायोद्धा स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य
गंगा-यमुना के आंगन से लेकर गुजरात के प्रभाष पाटण तक और मध्य भारत से लेकर पेशावर और कश्मीर तक युवा सैन्य अधिपति स्कन्दगुप्त ने समूचे उत्तरी भारत को हूणों के आतंक से मुक्त कर दिया।
औड़िहार से प्रारंभ हुए हूणान्तक महायुद्ध को जीतकर जैसे ही वह बाहुबली चतुरंगिणी सेनाओं के साथ विजयोल्लास मनाता हुआ पाटलिपुत्र पहुंचा, उसे विकट राजनीतिक परिस्थिति का सामना करना पड़ा। राजसिंहासन की दावेदारी का मामला राजप्रासाद में ताजे विवाद की वजह बन गया था। हूण सेनाओं के साथ स्कन्दगुप्त के घनघोर संग्राम का समाचार पाकर पहले से बीमार पिता महाराजाधिराज कुमार गुप्त सिंहासन के उत्तराधिकार का निर्णय किए बगैर ही स्वर्गवासी हो गए। उन्हें उम्मीद थी कि बेटा शीघ्र ही युद्धभूमि से वापस आ जाएगा किन्तु हूणों का फैलाव भारत में गुजरात और समूची पश्चिमी सरहद अर्थात गांधार तक हो जाने के कारण स्कन्दगुप्त ने समस्या का संपूर्ण समाधान किए बगैर राजधानी पाटलिपुत्र लौटना स्वीकार नहीं किया। यह जानते हुए भी कि पिता अस्वस्थ हैं और पुत्र की बाट जोह रहे हैं, स्कन्दगुप्त ने भागते हूणों के पीछे लगातार प्रहार जारी रखने के लिए सेनाओं को निर्देश दिए, स्वयं भी मोर्चे पर डटा रहा जबतक कि युद्धभूमि में लड़ते हुए हूण बड़ी तादाद में मारे नहीं गए अथवा हूणों के जत्थे या तो समर्पण नहीं कर गए अथवा बचे-खुचे हूण गांधार के पार के ईरानी और अरबी इलाकों में भागकर अन्तर्ध्यान नहीं हो गए।
इस महायुद्ध की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्कन्दगुप्त को कई कई रात अपने अश्व की पीठ पर गुजारनी पड़ी, और तो और उसने अपने सैनिकों के साथ भूमि पर रात्रिविश्राम प्रारंभ किया ताकि उनमें से किसी के मन में हूणों के भयावह बर्बर रूप को देखकर पलायन का भाव न पनपने लगे। ..क्षितितल (भूमि पर) शयनीये...(रात बिताई)। जिस देश में सेनानायक अपने सैनिकों के साथ इस प्रकार रात-दिन राष्ट्र रक्षा के लिए तपस्या करते हैं, भला उस देश का कोई क्या बिगाड़ सकता है।
सोमदेव द्वारा रचित कथा सरित्सागर में वर्णन आता है कि स्कन्दगुप्त ने सौराष्ट्र से लेकर कश्मीर तक दिग्विजय अभियान चलाया और हूणों के आतंक से देश को मुक्ति दिलाई। गुजरात के जूनागढ़ से प्राप्त अभिलेख में लिखा मिलता है कि स्कन्दगुप्त ने अपने बाहुबल और परिश्रम से पराक्रम अर्जित किया। राजाओं के राजाधिराज सम्राट स्कन्दगुप्त ने अहंकार और मान में चूर कितने ही विषैले सर्प रूपी शत्रुओं के फनों को कुचलकर रख दिया, उनकी गरुड़ अंकित राजमुद्रा के सम्मुख कितने ही राजाओं के अहंकार ऐसे चकनाचूर हो गए, जैसे गरुड़ के सम्मुख अहंकारी सर्प सदा के लिए विषहीन हो जाते हैं। ...चारों समुद्रों तक फैली इस भारतभूमि को एकक्षत्र राज्य के अधीन कर लिया...उनका हूणों के विरुद्ध प्रबल पराक्रम ही ऐसा था कि म्लेच्छदेशों (हूणों के केंद्र) में भी उनका यश चारों ओर फैल गया...।
..स्वभुज-जनित-वीर्यो-राज-राजाधिराजः।...भुजंगानाम् मानदर्पोत्फणानां प्रतिकृति गरुड़ाज्ञां निर्विषीचावकर्ता...।...आमूलभग्नदर्पा निर्वचना म्लेच्छ-देशेषु। (जूनागढ़, गुजरात अभिलेख)
इस प्रकार स्कन्दगुप्त द्वारा स्थापित गुजरात के जूनागढ़ अभिलेख में भी हूणों की पराजय का उल्लेख है। जूनागढ़ अभिलेख में यह वर्णन भी है कि सौराष्ट्र समेत पश्चिमी भारत में सुव्यवस्था लाने के लिए और सरहदी इलाकों में हूणों के विरुद्ध अभियान जारी रखने के लिए स्कन्दगुप्त ने पर्णदत्त और बाद में उनके पराक्रमी उत्तराधिकारी चक्रपालित को राज्यपाल (गोप्ता) नियुक्त किया था। इसी दौरान गुजरात में ईस्वी सन 455 में सुदर्शन बांध के टूटने की घटना भी घटी थी, जिसे एक साल के भीतर सन् 456 में स्कन्दगुप्त के आदेश से पर्णदत्त ने पुनःनिर्मित कराया। इस बांध के पुनर्निर्माण के कारण सैकड़ों ग्रामों समेत लाखों लोगों को बड़ी राहत मिली।
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