कबंध राक्षस का उद्धार
मृग को राक्षस का रूप धारण करते देख श्रीराम समझ गए कि अवश्य कोई अप्रिय घटना घटनेवाली है। वे शीघता से कुटिया की ओर चल पड़े। मार्ग में लक्ष्मण आते दिखाई दिए। किसी अनिष्ट की आशंका से उनका मन काँपने लगा। अब तक लक्ष्मण उनके पास पहुँच चुके थे। उन्हें सारी घटना बताते हुए श्रीराम बोले, ‘‘लक्ष्मण, मैं जिस मृग का पीछा कर रहा था, वास्तव में वह एक मायावी राक्षस था। उसी ने मेरे स्वर में सीता और तुम्हें पुकारा था। यह किसी का षत्रं लगता है। शीघ कुटिया की ओर चलो। जानकी अकेली हैं। कोई अनिष्ट न हो जाए।’’
किंतु अनिष्ट हो चुका था। उन्होंने कुटिया का कोना-कोना छान मारा, लेकिन जानकी नहीं मिलीं। श्रीराम व्याकुल हो उठे और उन्हें ढूँढ़ते हुए वन-वन विचरने लगे। भटकते-भटकते राम-लक्ष्मण उस स्थान पर जा पहुँचे, जहाँ जटायु मरणासन्न अवस्था में पड़ा था। श्रीराम ने जटायु का सिर अपनी गोद में रखा और दुखी स्वर में बोले, ‘‘हे गृद्धराज! आपकी यह दशा किस पापी ने की है?’’
जटायु पीड़ा से कराहते हुए बोला, ‘‘श्रीराम! लंका के राजा रावण ने मेरी यह दुर्दशा की है। उसी ने जानकी का हरण किया है। जब मैंने उसे रोकने का प्रयास किया तो उसने तलवार से मेरे दोनों पंख काट दिए। राम! मुझे क्षमा कर देना। मैं सीता को रावण के चंगुल से छुड़ा नहीं पाया।’’ इतना कहकर जटायु ने अपने प्राण त्याग दिए।
राम के नेत्रों में आँसू भर आए। वे जटायु को पिता समान मानते थे। उन्होंने लक्ष्मण से एक चिता तैयार करवाई और जटायु का विधिवत् दाह-संस्कार किया। तदनंतर वे दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े।
पंचवटी से निकलकर श्रीराम और लक्ष्मण क्रौंच वन में पहुँचे। उस वन में कबंध नामक एक शक्तिशाली और विशालकाय राक्षस रहता था। उसकी केवल एक आँख थी तथा सिर धड़ में घुसा हुआ था। उसने अपने विशाल हाथों से राम-लक्ष्मण को ऊपर उठा लिया और जब उन्हें खाने को उद्यत हुआ तो उन्होंने तलवार से उसकी दोनों भुजाएँ काट दीं और फिर उसे मार डाला।
कबंध के मरते ही उसके शरीर से एक सुंदर गंधर्व प्रकट हुआ। उसे देखकर राम-लक्ष्मण विस्मित रह गए। राम ने उसका परिचय पूछा। गंधर्व अपनी आपबीती सुनाते हुए बोला, ‘‘भगवन्! मैं यक्षलोक में निवास करनेवाला एक गंधर्व हूँ। एक बार सुंदरता के अहंकार में मैंने दुर्वासा मुनि का अपमान कर दिया था। तब दुर्वासा मुनि ने क्रुद्ध होकर मुझे राक्षस बन जाने का शाप दे दिया था। तभी से मैं दैत्य-योनि में पड़ा कष्ट भोग रहा था। एक दिन दुर्वासा मुनि पुनः यहाँ से निकले। उस समय मेरी दयनीय दशा देखकर उन्होंने मुझे वर दिया कि सीताजी की खोज करते हुए जब श्रीराम यहाँ आएँगे, तब मैं उन्हीं के द्वारा शाप से मुक्त हो जाऊँगा। आपने मेरा उद्धार कर मेरे समस्त पापों का नाश कर डाला। प्रभु! यहाँ से कुछ दूरी पर मतंग ऋषि का आश्रम है। वहाँ शबरी नामक संन्यासिनी रहती है। आप उसके पास जाएँ, वह आपका उचित मार्गदर्शन करेगी।’’
इस प्रकार श्रीराम द्वारा शाप-मुक्त होकर कबंध यक्षलोक को चला गया।
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