*एक नगर-राज्य की कथा*
उस नगर-राज्य में राजा और उसके अमात्यों के मंडल और राज-परिषद के सदस्यों का निर्वाचन वास्तव में अर्द्ध-रात्रि में आयोजित नगर सेठों की परिषद की विशेष गुप्त सभा किया करती थी। फिर सैनिकों से घिरे कुछ राज-पुरुष सामान्य जनों को घर-घर जाकर बता देते थे कि किन जनों को राजा, अमात्य और राजपरिषद-सदस्य चुनना है। फिर एक दिन नगर-द्वार के निकट सैनिक लोगों को ठेलकर लाते थे। कोई प्रस्ताव रखता था, कोई समर्थन करता था राज्य का संकट दिन-प्रतिदिन गंभीर होता जा रहा था। नगर-सेठ भी आपस में कलहरत थे। जनता 'त्राहि-त्राहि' कर रही थी। तब गहन मंत्रणा के बाद परिषद ने ऐसे राजा और ऐसे अमात्यों के मंडल का चुनाव किया जो दिखने में तो परम मूर्ख विदूषक लगते थे, पर वास्तव में कुशल हत्यारे, ठग और गिरहकट थे। उनमें से कुछ घाटों के पण्डे और कुछ सड़कों पर खेल दिखाने वाले मदारी भी थे। वे लोगों को ठगने, रिझाने और वक्तृत्व-कला में अति-कुशल थे।
उनमें से कुछ ने लोगों को बताया कि नगर-राज्य पर पड़ोसी राज्य हमला करने वाला है, अतः मातृभूमि के लिए कष्ट उठाने होंगे। कुछ ने बताया कि राज्य के भीतर राज्यद्रोही और अन्य राज्यों के गुप्तचर सक्रिय हैं और सभी लोग एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगे। कुछ ने बताया कि अधर्म की काली छाया से मुक्ति के लिए नगर-राज्य को धर्म-राज्य बनाना होगा और एक धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करना होगा जो बहुसंख्यकों का धर्म होगा।
स्थिति यह हो गयी कि लोग अहर्निश परस्पर कलह और रक्तपात में उलझे रहने लगे। उन्माद के नशे में विवेक-शून्य हो चुके लोग अपनी दुरवस्था के निराशाजनित क्रोध को व्यर्थ हिंसा के रूप में अभिव्यक्त करने लगे। जो लोग इस पागलपन के विरुद्ध आवाज़ उठाते थे, उन्हें दीवारों में चिनवा दिया जाता था।
इतिहास बताता है कि बड़े कठिन उद्यमों के बाद दुष्टता और बर्बरता का यह राज्य समाप्त किया जा सका।
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