श्री राम चरित मानस - बाल कांड
श्री राम और लक्ष्मण, महर्षि विश्वामित्र के साथ राजा जनक के द्वारा आयोजित स्वयंवर देखने आए है, जैसे ही वो सभा में पहुँचते हैं, सभी लोगों की दृष्टि उनपर पड़ती है और सभी के मन में अलग अलग विचार आते है, इसी पर कहा गया है कि जा की रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन्ह देखी वैसी.. आप भी आनंद लीजिए..
राजकुअँर तेहि अवसर आए । मनहुँ मनोहरता तन छाए ॥
गुन सागर नागर बर बीरा । सुंदर स्यामल गौर सरीरा ॥१॥
(इस अवसर पर राजकुमारों का भी आना हुआ, मानो साक्षात मनोहरता उनके तन पर छा रही हो, उनके गुण और बल जैसे सागर के समान असीम है, उनका शरीर सुंदर और सांवला है..)
राज समाज बिराजत रूरे । उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे ॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी । प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥२॥
(वो राजाओं के समाज में विराजे हुए ऐसे लग रहें हैं जैसे तारा-गनो में दो चंद्रमा निकल आए हों, जिनकी जैसे भावना रही उन्होने वैसे ही प्रभु का दर्शन किया..)
देखहिं रूप महा रनधीरा । मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा ॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी । मनहुँ भयानक मूरति भारी ॥३॥
(महारथियों को वे शरीर के रूप में वीर रस की प्रतिमा लग रहे थे तो कुटिल राजाओं को भयानक मूर्ति)
रहे असुर छल छोनिप बेषा । तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा ॥
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई । नरभूषन लोचन सुखदाई ॥४॥
(और जो असुर रूप बदल कर राजा के रूप में बैठे थे, उन्हे वो काल के समान लग रहे थे, नगर वासियों ने उन्हे नेत्रों को सुख देने वाले के रूप में देखा)
नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप ।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप ॥ २४१ ॥
(स्त्रियाँ प्रसन्न होकर अपनी अपनी रूचि के अनुसार उन्हे देख रही थी, मानों शृंगार रस ने अनुपम मूर्ति का रूप ले लिया हो)
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा । बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसैं । सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ॥१॥
(विद्वानों को वो विराट रूप में दिखाई दिए, जिनके बहुतेरे मुख, हाथ, पैसे और आँखे हों, जनक के परिवार जन उन्हे और भला कैसे देखते, जैसे स्वजन को देखा जाता है उसी प्रिय रूप में )
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी । सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा । सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ॥२॥
(इन्ही के साथ रानियाँ उन्हे शिशु समान देख रही है और उनका स्नेह बयान नहीं किया जा सकता, योगियों को वो शांत चित्त और स्व प्रकाशित लग रहें थे )
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता । इष्टदेव इव सब सुख दाता ॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया । सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ॥३॥
हरी के भक्तों ने उन्हे अपने ईष्ट देव के रूप में देखा जो सब सुखों के दाता थे, और राम को जिस तरह सीता जी देख रही थी वो स्नेह रूप अकथनीय है )
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ । कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ । तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ॥४॥
(उस अनुभूति को कोई कवि किस प्रकार बता सकता है, इस प्रकार कोशल नरेश ने भी राम को अपनी भावनुसार देखा)
बाबा तुलसी कृत रामचरित मानस में बाबा ने इसे इतना रसमय बना दिया है कि जन साधारण भी आसानी से समझ और अपने जीवन में आचरित करः सकता है। नमन है बाबा तुलसी दास को।
और इसके बाद ये उक्ति कितनी प्रचलित हुई है इसके बारे में कुछ भी कहना सूरज को दिया दिखाने जैसे ही व्यर्थ होगा.. और भी कुछ नया लेकर आऊंगा , बहुत जल्द....
आपका..
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