महान योध्दा: विक्रमादित्य भाग-2
विक्रमादित्य के जीवन की कहानी नीचे उल्लेखित की गयी है:-
चन्द्रगर्भपरिपृच्छा नामक पाठ से पता चलता है कि हूणों के विनाश के काम में स्कन्दगुप्त को कई वर्ष लगे। राजसिंहासन संभालने के पूर्व ही वह हूणों के विरुद्ध अभियान में जुट गया और सिंहासन संभालने के बाद भी उसे कई वर्ष तक युद्धभूमि में जीवन गुजारना पड़ा। अन्ततः बारह वर्ष तक लगातार पराक्रम कर उस महायोद्धा ने भारत में शांति स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। कहांव अभिलेख में वर्णन आता है कि वह राष्ट्र का मुक्तिदाता बन गया, गुप्त साम्राज्य के गौरव की उसने पुनर्स्थापना की, शासन को उसने पुनः संगठित स्वरूप प्रदान किया। इस ब्यौरे से स्पष्ट है कि स्कन्दगुप्त का संपूर्ण जीवन ही भारत को संगठित, एकजुट, शत्रुमुक्त और एकछत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित करने में व्यतीत हुआ। अभिलेख बताते हैं कि स्कन्दगुप्त ने पिता कुमारगुप्त के स्वर्गवासी होने के बाद ईस्वी सन 454 में गुप्तवंश का राज्य हाथ में लिया और ईस्वी सन 467 तक कुशलतापूर्वक संपूर्ण देश को हूणों के आतंक, अराजकता और बर्बरता से मुक्त कर सुव्यवस्थित करने में जुटा रहा।
स्कन्दगुप्त का जन्म कब हुआ, इस पर इतिहास मौन है। सम्राट कुमारगुप्त के राज्यारोहण का वर्ष अवश्य इतिहास में ज्ञात है कि सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के बाद उनके पुत्र सम्राट कुमार गुप्त ने ईस्वी सन 412 में गुप्त साम्राज्य की कमान हाथ में ली और वह मृत्युपर्यन्त सम्राट बने रहे। स्पष्ट है कि हूणों के आक्रमण अर्थात ईस्वी सन 452 से 454 का वर्ष ही वह समय है जबकि कुमार गुप्त का निधन हुआ और इसी मध्य स्कन्दगुप्त हूणों के विरुद्ध महासंग्राम के लिए रणभूमि में उतर पड़े। इतिहास स्रोतों के अनुसार, हूणों के विरुद्ध युद्ध की कमान हाथ में लेने के समय स्कन्दगुप्त की आयु 20 से 30 वर्ष के मध्य अवश्य रही होगी। इस आधार पर अनेक इतिहासकार स्कन्दगुप्त का जन्म ईस्वी सन 419 से 429 के मध्य मानते हैं।
हूणों के विरुद्ध स्कन्दगुप्त को मिली विराट विजय ने भारत की तत्कालीन राजनीति पर दूरगामी असर डाला। बड़े बेटे को ही सिंहासन मिलना चाहिए, इस प्रकार की नीति को जारी रखने के विरुद्ध जनता ने सुयोग्य नेतृत्व को ही सिंहासन पर देखने का मन बना लिया। भितरी स्तंभलेख में वर्णन आता है कि- चरितम-अमल कीर्तेर्ग्गीयते यस्य शुभ्रं दिशि-दिशि परियुष्टैराकुमारं मनुष्यैः पितरि दिवमुपेते...। अर्थात उसके निर्मल चरित और उसकी महान कीर्ति का बखान चारों दिशाओं में होने लगा। पिता तो गुजर गए किन्तु संपूर्ण लोक ने, किशोर, महिलाओं और युवाओं में, बुजुर्गों में उसकी यशपताका चारों ओर लहराने लगी। उसकी इस लोकप्रियता का ही परिणाम था कि स्कन्दगुप्त की सौतेली मां राजमाता अनन्तादेवी को अपने बड़े पुत्र पुरुगुप्त को सम्राट पद पर अभिषिक्त करने का निर्णय वापस लेना पड़ा। संभवतः पाटलिपुत्र के चारों ओर स्कन्दगुप्त के स्वागत में उमड़े जनसैलाब और हूणों के विरुद्ध सैन्यबल का नेतृत्व करने वाले रणबांकुरे अन्य उप-सेनापतियों की इच्छा ने भी स्कन्दगुप्त के सम्राट पद पर राज्यारोहण में विशेष भूमिका निभाई।
अनेक स्रोतों के आकलन से यही निष्कर्ष निकलता है कि जनता ने स्कन्दगुप्त के राजतिलक की पीठिका तैयार की। विजयश्री प्राप्त होने के बाद स्कन्दगुप्त को सम्राट बनाने के लिए प्रजा ने चारों ओर से राजमहल का घेरा डाले रखा था, उसकी तबतक चारों ओर जयजयकार हुई, जबतक कि उसने सम्राट पद संभाल नहीं लिया। गांव-गांव से जनसैलाब निकलकर उस महान सेनानायक के साथ ही पाटलिपुत्र की ओर उमड़ चला जहां पिता कुमार गुप्त के गुजर जाने के बाद डबडबायी नेत्रों वाली मां अपने प्रिय पराक्रमी पुत्र के स्वागत की प्रतीक्षा कर रही थी। इतिहास ने स्कन्दगुप्त के इस जयजयकार और राजधानी में माता से मिलन के परिदृश्य को अत्यंत सुन्दर ढंग से चित्रित किया है।
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