शनि की ढैया
अयोध्या नगरी में राजा दशरथ राज्य करते थे। वे सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र, सगर एवं भगीरथ के वंशज थे तथा उन्हीं के समान प्रतापी भी थे। उनके राज्य में चारों ओर सुख-शांति का वास था। वैभव, ऐश्वर्य और समृद्धि उनके राज्य के कोने-कोने में दिखाई देती थी।
एक बार शनिदेव के आगह पर इंद्र ने अयोध्या में वर्षा नहीं की। यह क्रम निरंतर चौदह वर्षों तक चलता रहा। इसके फलस्वरूप अयोध्या का सारा ऐश्वर्य, वैभव और समृद्धि शनै-शनै कम होने लगी। चारों ओर अकाल का-सा दृश्य उपस्थित हो गया। लोग अन्न और जल के अभाव में काल का ग्रास बनने लगे।
प्रजा की संकटपूर्ण स्थिति देखकर राजा दशरथ चिंतित हो उठे। उन्होंने इस विषय पर विद्वानों से परामर्श किया और कोई उपाय करने के लिए कहा। सभी ने एकमत होकर कहा, ‘‘राजन्! देवराज इंद्र मेघों को नियंत्रित करते हैं। उनकी आज्ञा से ही वे पृथ्वी पर जल बरसाते हैं। अतः इस विषय में आप उनसे पूछें। अवश्य ही इसके पीछे कोई गूढ़ भेद छिपा हुआ है।’’
महाराज दशरथ ने कुछ देर विचार किया और फिर रथ पर बैठकर इंद्र से मिलने चल पड़े।
राजा दशरथ को आया देख इंद्र स्वयं उनके स्वागत के लिए आए। अतिथि-सत्कार के बाद इंद्र ने राजा दशरथ से वहाँ आने का कारण पूछा। दशरथ थोड़ा सा क्रोधित होकर बोले, ‘‘देवराज! आपने पिछले चौदह वर्षों से अयोध्या में वर्षा नहीं की। लोग अन्न-जल के अभाव में प्राण त्याग रहे हैं। इसके बाद भी आप मेरे यहाँ आने का कारण पूछ रहे हैं? क्या मेघों ने अयोध्या का मार्ग भुला दिया? क्या अब मुझे अपने बाणों द्वारा उनका मार्गदर्शन करना पड़ेगा?’’
इंद्र विनम्र स्वर में बोले, ‘‘राजन्! आपका क्रोध उचित है, परंतु इसके पीछे शनिदेव की इच्छा है। उन्हीं की आज्ञा के कारण मैं विवश हूँ। आप उनके पास जाकर इस विषय में पूछ सकते हैं। मुझे विश्वास है कि वे आपकी इस समस्या का समाधान अवश्य करेंगे।’’
तदनंतर दशरथ शनिदेव से मिलने चल दिए।
जैसे-जैसे दशरथ आगे बढ़े वैसे-वैसे उनके कवच, अत्र, शत्र और रथ एक-एक कर नीचे गिरते गए। अंत में वे स्वयं रथविहीन होकर आकाश से गिर पड़े। तेजी से पृथ्वी पर गिरते दशरथ को अपना अंत निकट प्रतीत हो रहा था। अभी वे पृथ्वी से टकराने ही वाले थे कि तभी विशालकाय पंजों ने उन्हें दबोच लिया और सुरक्षित स्थान पर उतार दिया। दशरथ के लिए यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। उन्होंने जैसे ही अपने रक्षक को देखा, वे आश्चर्य से भर उठे। इतना विशालकाय पक्षी उन्होंने आज तक नहीं देखा था। उन्होंने उसका परिचय पूछा। पक्षी विनम्र स्वर में बोला, ‘‘राजन्! मैं पक्षिराज गरुड़ का पुत्र जटायु हूँ। आपको आकाश से गिरता देखा तो सहायता हेतु दौड़ा आया। परंतु आप गिरे कैसे? आप कहाँ जा रहे थे?’’
दशरथ ने सारी बात बताई। तत्पश्चात् जटायु स्वयं उन्हें साथ लेकर शनिदेव के पास गया। दशरथ ने शनिदेव से अयोध्या में वर्षा न करने का कारण पूछा। तब शनिदेव बोले, ‘‘राजन्! विधि के विधान के अनुसार मनुष्य को जीवन में एक बार शनि की ढैया का सामना अवश्य करना पड़ता है। मेरी छाया के कारण आपको ये कष्ट भोगने थे, इसलिए आपके साथ यह घटित हुआ। परंतु अब मेरा प्रभाव समाप्त हो रहा है। अब आप अयोध्या लौट जाएँ। शीघ ही अयोध्या में वर्षा होगी और पुनः वैभव, ऐश्वर्य एवं समृद्धि का वास हो जाएगा।’’
शनिदेव से आश्वासन पाकर राजा दशरथ जटायु के साथ पृथ्वी पर लौट आए। फिर दोनों एक-दूसरे को मित्रता का वचन देकर अपनी-अपनी राह चले गए।
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