सूर्य की किरणे खिड़की से प्रवेश करती हुई मेरे कमरे में कुछ इस तरह बिखर रही थी मानो जैसे स्वर्ण रूपी जल बिखर रहा हो | खिड़की से आ रही हवा जीवन की गतिशीलता का एहसास करवा रही थी | वाह, सुबह की यह स्थिरता स्वयं में प्रकृति का अद्भुत रूप है| रात को मेज पर रखी किताबे, सुबह फिर आँख खोल मेरी ओर देख रही थी शायद यदि जीवित होती तो अवश्य सुप्रभात बोल उठती |
आलस को अलविदा कह दिन की रणनीति मन ही मन बना डाली | प्रभात की ऊर्जा का अनुभव करते हुए मैं अखबार और हाथ मे कलम लेकर देश विदेश का हाल जानने निकल पड़ा था | मुझे अभी भी याद है एक समय था जब मुझे समाचार आदि में कोई रुचि नही थी खास तौर पर राजनीतिक समाचार, जहां नेता देश के हालात की चर्चा कम और विपक्षी नेताओ की आलोचना करना अपना परम कर्तव्य समझते है | खैर, अब रुचि भी जाग चुकी है और अखबार के साथ मेरी दोस्ती , प्रेम में तब्दील हो चुकी है | अखबार की सुर्खियों पर अपनी गंभीर नजर टिका मुद्दों को समझने का प्रयास करने लगा , कुछ ही पन्ने पलटे थे कि इतने में हमारे पी.गी में खाना बनाने वाली दीदी का प्रवेश हुआ | दीदी रेलगाड़ी की तरह आती है और रेलगाड़ी की तरह ही चली जाती है | सुबह जल्दी उठने के कारण मुझे ही उनके प्रशनों का उत्तर देने के लिए रसोईघर में हाजिर होना पड़ता था
" भईया आपसे कल कहा था .... , सब्जियाँ मँगवा देना... और आप भूल गए , अब कहो क्या बनाऊ मैं ?"
"अब मैं दाल ही बनाऊँगी ... और शाम को याद से मँगवा लेना, " दीदी ने खुद ही उत्तर दे डाला |
इसी वार्तालाप के मध्य एक नव युवक द्वार पर आ प्रकट हुआ | इससे पहले मैं कुछ कहूँ उसने कचरा पेटी उठा अपना परिचय जाहीर कर दिया | कचरे को थैले में डाल वह ऐसे निकला मानो जैसे एक हवा का झोखा निकला हो | न उसने आंखे ऊपर की, न आस पास देखा, बस आया और चला गया |
" भईया, मैं कल नहीं आ सकती , आप बाकी सब लोगो को बता देना और फिर से भूल मत जाना |"
" जी दीदी " बोल कर मै उनहे और उनके गुस्से को रसोई में ही छोड़ कर आ गया | दीदी को खाना बनाने के पैसे मैं अकसर समय पर ही दिया करता हूँ, पर उन्हे लगता था कि भोजन के साथ साथ बेमतलब का गुस्सा भी परोस देना चाहिए | खाना बनाते समय फोन पर लगातार बात करना उनकी एक खास विशेषता थी |
अपने ध्यान को फिर से एकत्रित कर मैंने कलम उठाई और देश दुनिया का हाल चाल लेने हेतु एक बार फिर अखबार पढ़ना शुरू किया | कहीं बाढ़ तो कहीं अकाल , कही आतंकवादी हमला तो कही नेताओं की हड़ताल, अखबार में कुछ वाक्यों को एक बार रेखांकित किया तो कहीं दो बार , और कुछ ज्यादा ही गंभीर मामला लगा तो गोला भी बना दिया | पढ़ाई का सिलसिला अच्छे से आरंभ हुआ ही था कि एक नया दखल आया | कोई व्यक्ति बार बार अपनी गाड़ी का हॉर्न बजा रहा था |
अब स्थिति यह है कि हॉर्न को बजते हुए लगभग 4-5 मिनट हो चले थे| गली के कुत्ते भी भोक कर अब शांत हो चले थे | पर ऐसा लगा जैसे कि आस पास के निवासियों को कोई फर्क ही नहीं | यदि बाहर कोई बड़ी दुर्घटना हो जाए तभ भी यहाँ दखल देना मूर्खता समझा जाता है | कहीं खूब पढ़ा था कि " कब्रिस्तान केवल वही नहीं जो आप समझते है , मानव मूल्यों का मर जाना भी समाज को एक कब्रिस्तान बना देता ह "
देखने पर पता चला कि समस्या कुछ अलग ही है| सड़क के बीचों बीच कचरा इकट्ठा करने वाले भाई का रिक्शा खड़ा था जो गाड़ी का रास्ता रोके हुए थी | हॉर्न बजाने पर भी रिक्शा का मालिक दूर दूर तक नजर नहीं आया| शायद वह आस पास के घरों से कचरा इकट्ठा करने में व्यस्त था और आवाज़ सुन नहीं पाया | तभी मुझे याद आया की जो व्यक्ति आज कचरा लेने आया था वह चहरा कुछ नया था | उम्र लगभग 20 या 21 साल , पतला शरीर और चहरे पर गंभीरता का भार | एक घिसी फटी पेंट और एक लाल घिसी कमीज़ | शायद आज यह उसका पहला दिन था और इसलिए घवराहट के चिन्ह उसके चहरे पर स्पष्ट रूप से नजर आ रहे थे |
हॉर्न बजाने पर भी कोई न आया | अंत: गाड़ी का मालिक बाहर निकला और महोदय ने दूर तक एक नजर दौड़ाई, चोड़ी आंखे , लाल मुंह यह जाहीर कर रहा था की यदि रिक्शे का मालिक इसे मिला तो यह उसकी जान ही ले लेगा पर इसे सौभाग्य ही कहेंगे कि वह युवा अभी तक लौटा न था | महोदय ने घड़ी की ओर देखा और मन ही मन बड्बड़ाना शुरू किया | इतने में ही अपनी उपस्थिती दर्ज करवाने मेरी मकान मालकिन द्वार पर आ पहुंची
"अरे भाई साहब क्या हुआ ? क्यों सुबह सुबह इतना हॉर्न बजा रहे हो? "
" आप ही देखिए , पता नहीं यह कौन मूर्ख इंसान है जिसे इतनी भी अक्ल नहीं कि रिक्शा सड़क के एक तरफ खड़ा करे , कब से हॉर्न बजा रहा हूँ पर पता नहीं कहाँ है ये बेवकूफ..
कुछ पल रुक कर मकान मालकिन बोली " अब क्या कहूँ भाईसाहब... इनके पास कुछ पैसे क्या आने लगे अपने असली रंग दिखाने लगते है . . . अपनी जाती दिखा ही देते है, इन लोगो का कुछ नहीं हो सकता "
' सही कहा , अगर अभी मिल जाए तो इसे जानवर से इंसान बना दूँ , पता नहीं कहाँ गायब है और मुझे यहाँ देरी हो रही है | "
अपना अमूल्य ज्ञान बाँट कर मेरी मकान मालकिन फिर से भीतर चली गई | मैं ऊपर खिड़की से यह तमाशा इस प्रकार देख रहा था मानो जैसे ईश्वर धरती पर देखते हो | संवेदना का अंत होना, कर्मो का खेल होना, मनुष्य द्वारा समस्याओ को बुनना और उसमे फसना, स्वार्थी सामाजिक संरचना, आधुनिक जीवन का दिखावा, सब आंखो के सामने था | दया, धर्म , मानव प्रेम यह केवल शब्द ही रह गए है जिनका अर्थ न कोई समझता है और न ही कोई समझने का प्रयास करता है | आश्चर्यजनक तो यह है कि इस प्रकार की विचारधाराएँ आज भी समाज में जड़ बनाएँ हुए है| कहने वाले कह गए , बदलने का प्रयास भी किया गया, पर सब व्यर्थ | दिनकर जी की यह पंक्ति मेरे जहन में आ उतरी - ऊंच नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है ,
दया धर्म जिसमे हो,सबसे वही पूज्य प्राणी है |
एक लंबी सांस लेकर कार मालिक ने अपना कदम बढ़ाया और रिक्शे के पास जा पहुंचे, कुछ विचार किया और फिर एक दम अपने दाएँ पाँव से रिक्शे को ज़ोर का धक्का दे मारा जिससे वह सड़क किनारे दीवार से जा टकराया और उस पर रखे कचरे के दो थैले वहीं गाड़ी के समाने जा गिरे | महाशय ने गर्व के साथ अपनी क्रोध की ज्वाला को बुझाया मानो प्रतिशोध ले लिया हो, जैसे दिखा दिया हो कि समाज में उसकी प्रतिष्ठा बरकरार है | यह व्यवहार देखकर न जाने क्यू गरीब - अमीर , जात - पात , छूत - अछूत जैसे शब्द मेरे मन मे सैलाब की तरह आ पहुंचे | ज़ोर से बोल देना चाहता था उस सूट बूट वाले श्रीमान को, "हाथ लगाने से अछूत नहीं हो जाओगे, उस रिक्शे को हाथ से पकड़कर एक तरफ क्यों नहीं कर दिया ? " पर शायद पराए शहर के भय ने मेरी जुबान को रोक दिया था यह आंखे जो एक तरफ घटना का गवाह बन रही थी तो दूसरी और कुछ न करने के लिए गुनहेगार भी थी |
अब देखना यह था कि गाड़ी के सामने गिरे हुए कचरे के थैले का निवारण किस प्रकार किया जाएगा | महोदय निश्चित हो गाड़ी में जा बैठे और थैले को नजरंदाज करते हुए गाड़ी को उसके ऊपर से ले गए | थैला जैसे दिख कर भी नहीं दिखा | थैला फटा और सड़क पर कचरा फैल गया | सड़क पर पड़ा कचरा अब मुझे कचरा कम और शिक्षा व धन का अहंकार ज्यादा दिख रहा था | समाज का वह वर्ग जो स्वयं को शिक्षित व सज्जन मानते है वही आज अनपढ़ता का परिचय दे रहे थे , आर्थिक रूप से प्रबल हो जाने पर व्यक्ति यदि समाज के निम्न वर्ग को अपना गुलाम समझे तो ऐसे आर्थिक विकास से दूर रहना ही मेरे लिए वाजिव है | सड़क पर फैला कचरा मुझे कुछ इस तरह देख रहा था मानो जैसे चुनौती दे रहा हो - " है हिम्मत ? या तुम भी इन जैसे ही हो ? " ... कुछ हवा चली और कचरे ने अपना क्षेत्र विस्तार किया | इसी बीच वह युवा आ पहुंचता है देखते ही समझ जाता है की क्या हुआ होगा | उसके सूखे चहरे पर करुणा के मेघ छा गए थे , जैसे तैसे आंसुओं की वर्षा को रोके हुए था| वह चहरा ना जाने कितने दुखों का बोझ उठाए हुए था | क्या क्रोध और क्या घृणा सब अर्थहीन था | यह कचरा जैसे उसी की धरोहर है जिसे कोई हाथ नहीं लगा सकता और जिसे केवल वही संभाल सकत
नजरों को चुराते हुए सिर नीचा कर वह कचरा उठाने लगा | यह दशा मेरे हृदय के आर पार हो गई, उसके मोन में छिपे शब्द जैसे मुझे सुनाई दे रहे थे| वह ज्यों ज्यों कचरा उठा रहा था वैसे वैसे मुझ पर प्रशनों का बोझ बढ़ने लगा | क्या यही शिक्षा का अर्थ रह गया है ? क्या संवेदना अब मुर्दों तक ही सीमित रह गई है ? ... प्रशन अनेक थे पर उत्तर देने वाला कोई न था | वह सड़क पर अकेला था ... वह युवा संयम व सहनशीलता का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा था | इज्जत और अपमान का कोई मलाल ही नहीं रह गया था , मानो जैसे जीवन कचरे के भांती सड़क पर भिखरा हो | सन्नाटा शून्यता को बुलावा दे रहा था | मुक्तिबोध जी की यह पंक्तिया जैसे इस युवा को ही व्यक्त कर रही थी
" मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ,
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है,
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है। "
कचरा समेट कर वह जाने लगा ... वह चला गया... पर उसका चहरा और सड़क पर फैला कचरा मेरी आंखो के सामने हमेशा के लिए रह गया |-
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.