परिचय की तलाश में

For those who are part of our society but often neglected, discriminated or sidelined. presenting you a short fiction story .

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Adhiraj
Adhiraj 14 Oct, 2025 | 2 mins read
Society LGBTQ+

“ Between the conception, 

And the creation.

 Between the emotion, 

 And the response. 

 Falls the Shadow,

For Thine is the Kingdom.... “

                    - T.S Eliot

 

एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार यह देह केवल वस्त्र समान है | मूल्य तो आत्मा का है, जो अनश्वर, अविनाशी है| हमारे संस्कार, ज्ञान, कर्म, विचार, चेतना आत्मा के अंश है| जीवन - मृत्यु के चक्र में आत्मा देह रूपी वस्त्र को अपनाती और त्यागती है | तो मानव का वास्तविक अस्तित्व क्या है ? - आत्मा? यदि यही शृष्टि का सत्य है तो स्त्री पुरुष का विभेदन व तर्कजाल, कहाँ तक उचित है ? और उनका क्या जो इस दायरे से बाहर हैं?  जिनको मानव की श्रेणी से भी निष्काषित कर दिया जाता है | परत तले परत नज़र आती है | मेरी, तुम्हारी शिनाख्त कैसे हो ? किसने माना है आत्मा के मूल्य को इस संसार में ? अब प्रतीत होता है कि यह परिचय, पहचान, मेरी या तुम्हारी नहीं है| पर हमें दी गई है परिवार, समाज और इस संसार द्वारा...  ये प्राण ही यथार्थ है जो.....                 

" भईया.... ओ भईया... किताबें ले लीजिए ना |   रिच डेड पूअर डेड, अटॉमिक हैबिट, हैरी पोटर, चेतन भगत, रॉबिन शर्मा सब है मेरे पास | "

ख़याली दुनिया से बाहर निकाल, इस ध्वनि ने मुझे वास्तविक जगत में स्थानांतरित कर दिया  | ये सोलह-सत्रह वर्ष का लड़का किताबों का ढ़ेर लिए इधर उधर ग्राहक की तलाश में था और मुझे बस स्टैंड पर अकेले बैठे देख चला आया | सफ़र के सन्नाटे को भंग करने के लिए मैं अपने साथ दो किताबें ले आया था| अत: इस व्यक्ति की चेष्ठा अधूरी रह गई और अन्य ग्राहक की खोज में वह किताबें उठा कहीं और चला गया | मेरे लिए घड़ी के कांटे रेंग रहे है और बस आने में अभी भी लगभग आधा घंटा शेष है| चारों और निगाह दौड़ाई तो वास्तव में यह जगत अति गतिवान प्रतीत हुआ, खास तौर पर ये बस स्टैंड | हजारों कदम अलग अलग रफ्तार से इधर उधर बढ़ते जा रहे है | हर चेहरा अलग आवेश में डूबा है | कोई समान के बोझ तले दबा जा रहा है, तो कोई सूट बूट पहने हाथ में बंधी घड़ी को ताक रहा है| बस कंडक्टरों की ऊंची आवाज और सीटी की पुकार से हाल गूंज उठता है | चिल्ला चिल्लाकर शहरों के नाम मेरे जैसे बेसुध यात्रियों के कानों तक पहुंचाएँ जा रहे है | कोई बस आ रही है तो कोई प्रस्थान कर रही है, उनके साथ यात्रीगण भी आने जाने की क्रिया में लीन है | शेक्सपिअर अगर अभी यहाँ होता तो अपनी पंक्तियाँ  

"All the world is a stage,

And all the men and women merely players;

They have their exits and their entrances;" 

 

के स्थान पर कह सकता था कि -

 

  " All the world is a bus stand,

    And all the men and women merely travelers:

    They have their buses to catch and leave...  “

 

 

यह स्थान कई व्यक्तियों के लिए आजीविका का साधन है | किताबों के साथ साथ , पानी , चाय, मूँगफली, सर्दियों के कपड़े जैसे टोपी, जुराब आदि का व्यापार भी चल रहा था | मेरे पास ही एक ढाबा था जहां आते जाते यात्री नाश्ता पानी करने हेतु रुक जाते थे | सर्दियों की सुबह सुस्ता देने वाली है, इस वस्त्र रूपी देह में गर्मी का संचार करने के लिए चाय का सेवन करना मुझे उचित जान पड़ा |

चाय लेकर मैं टेबल पर बैठ गया | कुछ देर बाद वहाँ एक व्यक्ति जिसे हमारे समाज में किन्नर, हिजरा, खुसरे आदि संज्ञाओं से संबोधित किया जाता है वहाँ आ पँहुची | वह सबसे मुद्रा रूपी दान मांगने लगी, जिसके बदले में वो ढेर सारे आशीष दे रही थी | वो मेरे पास आयी और बोली -

 

 " ऐ हैंडसम बाबू, टेन रूपीज प्लीज़ ... भगवान तुझे अफ़सर बनाए, तेरी सुंदर जोड़ी बनाए, लंबी उम्र करे, तुझे स्वस्थ रखे , ढेरो खुशियाँ दे बाबू.... ओ बाबू, टेन रूपीज प्लीस ... "

वो आंखे गड़ाए मेरी ओर देखती रही | मेरे भीतर एक अलग सी बेचैनी उठी, ड़र व अपरिचित आपत्ति का मिश्रण | मुझे बचपन की वह अफ़वा याद आई जब कहा जाता था कि ये लोग बच्चों को चुरा कर ले जाते हैं और जब भी ये हमारी गली में आते थे तो मैं ड़र के मारे घर के भीतर छिप जाता था | समाज की परवरिश से, मैं स्वयं इन्हे बहिष्कार की दृष्टि से देखता आया था | वह स्त्री जैसे रूप में मर्दाना आवाज़, भड़कीले सलवार सूट के ऊपर अनावश्यक मेकअप, बालों की एक लता को सुनहरे रंग से रंगा हुआ, ताली बजाकर मेरी और देख रही थी | मेरे पास खुले रुपे न थे और स्पष्ट व सीधे मुंह से ये बोलने का साहस भी न था, एक झिझक और घृणा मुझे रोक रही थी | अंत : मुझे सिर हिलाकर इनकार करना पड़ा |

 " हूँह ,.... कंजूस अंकल कहीं का .... भगवान सुखी रखे " वो इन शब्दों के साथ वहाँ से चली गई |

 इन शब्दों का मुझ पर कोई असर न हुआ आखिरकार देह तो वस्त्र है, उम्र तो महज बढ़ेगी ही | पर इस बात का गहरा आधात हुआ कि क्यों मैं उस इंसान से एक इंसान की तरह बात न कर पाया | वह घृणा, भय, बहिष्कार, अस्पष्ट झिझक क्यों मेरे भीतर अभी भी विद्यमान है ? क्यूँ मैं सिर उठाकर उस की ओर देख भी न पाया ?वे विचार फिर से जाग उठे | जिस परिचय की सराहना मानव संसार करता है, जो इस देह से सदैव के लिए जुड़ जाता है...  वहीं ये लोग उस क्षेत्र से निकाल दिए जाते है  | महज़ लिंग के आधार पर दुनिया से काट दिए जाते है, परिचयहीन कर दिए जाते है  | वे ज्ञान जो मानव सभ्यता पर लागू होता है, जिसे ग्रंथो में व जिसकी बड़े बड़े विद्वानों ने सराहना की है ... कहाँ तक इन व्यक्तियों के उपलक्ष में खड़ा नज़र आता है ? कहाँ इस देश, संसार का कानून इन्हे सम्मान जनक स्थान देता है ... कहाँ ?..... कहाँ ..... ?  ... और वहीं मैं जो इन सब कथनों में डूब जाने के बाद भी इंसान न बन पाया .... महज़ बातचीत तक के लिए झिझक से पराजित हो गया.... सोचता हूँ क्या व्यथा होगी इनकी, क्या सहा होगा, कैसे ये यहाँ पहुंचे और आगे कहाँ जाना होगा | हर दिन उजाले में भी जहां इनके लिए केवल रात्रि है| कैसे इन्होने अपने जीवन को सत्य रूप में स्वीकारा होगा | कैसे समाज के बहिष्कार को हँसते हुए सहा होगा ... कैसे ?... कैसे ?  

 

" बंधे जंजीरों से , वे दूर कहीं बिछड़े हैं ,

भीड़ की मार से, कहीं लड़खड़ाते वे खड़े है ,

चिल्लाते है वो एक जीवन की उम्मीद में ...

पर इंसान ही है वो, जो संसार में झूठे हैं | "

 

 मैं इन सब विचारों का मंथन कर रहा था और वह इंसान फिर उस ढाबे पर लोट आई और ढाबे के मालिक से कहने लगी -

 " लाला, नाश्ता तो करवा दे , बाल बच्चे खुश रहेंगे तेरे... चल एक प्लेट लगा दे  "

 " ना ना ... सोचना भी मत ... पिछली बार के पैसे कब दिए थे, कुछ याद है  ? "

" अरे लाला, अभी जो पैसे इकट्ठे हुए वो दीदी को दे आई, शाम को दे दूँगी... इतना बड़ा ढाबा तेरा, एक प्लेट से क्या हो जाएगा " " तुझे कहाँ न ... पैसे दे, और नाश्ता ले "

 मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ, मैं चाहत था कि अपनी इस झिझक को आज हमेशा के लिए खत्म कर दूँ| ये संवाद सुनते ही मैं बोल उठा -

 " अरे भईया, आप  नाश्ता दे दो इन्हे , पैसे मैं दे दूंगा "

 " ऐ हैंडसम बाबू, मुझे तो देखते ही लगा था दिल का अच्छा है रे तू , भगवान तुझे अफ़सर बनाए, सुंदर जोड़ी बनाए .."...    और फिर वही सब आशीर्वाद ...

वह नाश्ते की प्लेट लेकर मेरे सामने आ बैठी, मेरे भीतर फिर वही बेचैनी उठने लगी, फिर कंठ भारी हो गया, भय व झिझक उमड़ने लगी | पर इस बार निश्चय कर लिया था| अब उलझन थी कि क्या बात करूँ ? किन सर्वनामों का प्रयोग करूँ ? संशय हुआ कहीं मेरे शब्दों से कोई भावना आहत ना हो जाए | और अंत: मैं बोला -

 " आपका नाम क्या है ? "

" अरे बाबू, नाम में अब क्या ही रखा है ... कोई सोनू बोल दे तो कोई सोनिया ... कुछ भी बोल दे  " वह  खाना खाते हुए हंसने लगी ...

 थोड़ा रुककर बोली " बाबू शादी हो गई तुम्हारी ? "

" नहीं अभी तो पढ़ाई चल रही है "

" अच्छा ... अच्छा है बाबू , पढ़ो लिखो... फिर हम जैसो का भी कुछ भला करना | "

 

 मेरा साहस अब कुछ बढ़ा और झिझक कुछ कम हुई | इंसान यथाकथित जैसा दिखता है अवश्य नहीं वैसा हो | हर व्यक्ति परतों से घिरा है | कटु शब्द बोलने वाले कभी सच्चे साथी प्रतीत होते है और कभी मीठी बोली के लोग भी दुश्मन  बन जाते है | वार्तालाप और उससे भी ज्यादा किसी को सुनना ... मोका देता है इन परतों को भेद डालने का और व्यक्ति के वास्तविक स्वरूप तक पहुँचने का |  संवेदना ही वह सेतु है जो मानव को मानव से जोड़ता है | अब ये आंखे सोनिया की आँखों में भी एक इंसान को देख रही थी |

" तो आप यहाँ कैसे पहुंचे ? " नज़र से नज़र मिला मैंने अपना प्रश्न उसके सामने रख दिया |वह मेरी ओर देखने लगी और एक सांस भर कर बोली -

" ये सवाल तो आज तक किसी ने नहीं पूछा बाबू... क्या करोगे जान कर ... कुछ बताने लायक है ही नहीं... और अगर सुनो तो शायद विश्वास न करो "

 " मेरी बस आने में अभी समय है , एक चाय मँगवा देता हूँ आपके लिए  ... अगर बताने कि इच्छा हो तो ठीक है नहीं तो कोई बात नहीं "

" अरे बाबू... ( फिर वही ढेर सारे आशीर्वाद )  तुम चाय पीला रहे हो ... अब तो बताना पड़ेगा ना... "

 खाना खा कर उसने चाय की एक चुस्की भरी... और धीरे धीरे बोलना शुरू किया ... अब आवाज कुछ धीमी थी, बातों में संयम एवं गंभीरता आ उतरी थी, वह बोली -

 

" तो सुनो बाबू...  मेरा जन्म तो यू पी के गाँव शिवपालगंज में हुआ था | बड़ा परिवार था | चाचा, ताऊ भी थे | मेरी एक बड़ी बहन भी थी ... माने है | जन्म के बाद मेरा लड़कों की तरह पालनपोषण किया गया | और हाँ, अनपढ़ नहीं, पाँचवीं तक स्कूल भी गई हूँ मैं ... फिर बस कुदरत की मर्जी थी, अब ये सब अपने हाथ में कहाँ होता है बाबू ... तुम तो पढे लिखे हो जानते हो ... धीरे धीरे घर वाले डांटने लगे ... सीधा चलो... लड़को के साथ खेलो... और वही सब बाते बनाने लगे...  स्कूल में बच्चे मज़ाक बनाने लगे,  स्कूल से भी निकाल दिया ... बापू ने एक दिन दीदी का रूपट्टा मेरे गले में देखा तो जूती हाथ में लिए दौड़े चले आए, मारने लगे... उस दिन तो बाबू, मेरे ताऊ ने भी डंडा उठा लिया .... माँ रो रो कर खुद को कौसने लगी और मन मे जो गाली आए निकालने लगी ... उस दिन दीदी न होती तो बाबू हम तुम्हारे सामने जिंदा न होते ... मार डालते वो .."

वो अपनी आंखे अब नीचे किए, गिलास के किनारो को देखने लगी ... जैसी वह स्मृतियाँ ज़हर की तरह उसके शरीर में उतर रही हो...  और फिर बोली ...

 " अगले दिन आधी रात को मेरी बहन मेरे पास आई, चुपके से मुझे जगाया, हाथ में एक गठड़ी पकड़ाई, कुछ पैसे दिए और बाबू बोली " नीलू भाग जा यहाँ से .... हम सुने है कल चाचा को... तुम्हें जहीर देने की कह रहे थे ... भाग जा .."

 

ताली बजाते हुए, अपनी चेतना को फिर धरातल पर लाती हुई वह बोली - " साला, छोड़ आए हम भी ... देखे बाबू ... ऐसे चले थे हम ... और देखो इ लाला को ... पैसा पैसा करता है...  हाय .. हाय...  दुआ ले लिया कर कुछ लाला  ... हिजरों की दुआ लगती है .... "

 मन व्याकुल हो उठा, एक एक शब्द को आत्मसात करना मुश्किल था | एक अपराध की भावना ने मुझे घेर लिया | क्यूँ इस व्यक्ति के दवे अतीत के घाव को जगा गिया | जब आपको किसी के प्रति गहरी सहानभूति हो जाए , तो शब्द खत्म हो जाते है ... और रह जाता है मौन | मैं कुछ ज्यादा कह न पाया ...

 

" बेहद मुश्किल रहा होगा ... और आप फिर यहाँ दिल्ली आ गए | "

" अरे बाबू ... अभी मुश्किले सुने कहाँ हो ... इतने में घबरा गए ... | " ताली बजा कर " हाय हाय ... तुम तो बड़े नाजुक निकले ... "

 मेरी और देख कर , आवाज धीमी कर के वह फिर बोली " कुछ ग्यारह - बारह साल की थी मैं जब घर से भागी | रात को कुछ समझ न आया कहाँ जाऊँ| कुछ लोग रेलवे स्टेशन जा रहे थे, मैं भी उनके पीछे पीछे चल दी बाबू | सुबह आँख खुली तो मैं लखनऊ में थी | दिन भर भोचकी सी इधर उधर घूमी, पहली रात तो भूखे पेट सड़क पर काटी ...  अगले दिन एक ढ़ाबे वाले से नौकरी के लिए पूछा, उसने ऊपर से नीचे तक देखा और फिर बात बन गई ... मालिक बड़ा दयालु लगा ... ना कोई सवाल जबाब और काम पे रख लिया ... लगा जैसे मेरे सर पे अल्लाह का हाथ है ... वहाँ बर्तन मांजना, खाना पकाना, और भी काम करने लगी ... रात को वहीं ढ़ाबे पर सो जाती थी...   आय ... हाय बाबू पता ही नहीं लगा कब चार पाँच महीने निकल गए ...  मालिक पर भरोसा भी जम गया था | वो मुझे मन्नू कहके बुलाता था |  मुझे कुछ कहता न था... मैं भी पूरा ध्यान रखती थी कि कोई ऐसी वैसी अलग हरकत न करूँ|  पर बाबू जब खुदा ने ऐसा बनाया है तो कब तक और कहाँ तक छुपेगा ? मुझे लगा कई दिनों से मालिक मुझे घूर रहा है | एक दिन उसने मुझे बुलाया और बोला देखो मुझे कोई दिक्कत नहीं है से| पर आने वाले कस्टमर को होती है | मैंने तुम्हारे लिए एक नई नौकरी ढूंढ दी है ... कल आदमी आएगा उसके साथ चले जाना शहर में| बाबू मुझे कहाँ लोगो की पहचान थी | कुछ बोली नहीं, पहले ही जान बचा कर घर से भागी थी अब कोई जोखिम नहीं लेना था | अगले दिन एक आदमी आया ....

 

उसका गला भारी हो गया ... पानी पीते हुए फिर बोली - " फिर अगले दिन एक आदमी आया | उसने कुछ पैसे मालिक को दिए और मेरी ओर देखने लगा | मालिक ने इशारा किया, और मैं उसके साथ चली गई | मुझे मालिक पर भरोसा था बाबू...  पर वो साला मुझे ही बेच खाया ... तब पता लगा बाबू ये दुनिया कितनी हारामी है | वो आदमी मुझे मेरठ ले आया | एक पतली सी गली में, पाँच छः मंज़िला मकान था | उसने मुझे सलवार सूट दिया और बोला आज से ये पहनों... और कमरे में कुछ किन्नरों को भेजा जो मेरा मेकअप करने लगी ... बाबू मुझे तो कुछ समझ नहीं आया ... रात को लगभग ग्यारह बजे मुझे एक कमरे से दूसरे कमरे में लेजाया गया |  लाल नीले बल्ब की धीमी सी रौशनी | उसी आदमी ने कान में कहाँ , तुम्हारा नाम मल्लिका है , कस्टमर जैसा कहे वैसा करती रहना... अगर कुछ चालाकी की तो यहीं मार के दफ़ना दूंगा, किसी को पता भी नहीं लगेगा, समझी | मैं सहम गई, धड़कन जैसे बढ़ती ही जा रही थी, माथे पर पसीना बहने लगा |  बाबू अल्लाह मियाँ ने फिर सर पे हाथ रखा|  यह बात समझ आ गई कि यहाँ खतरा है | वह आदमी कमरे से बाहर निकला और कोई दूसरा अधेड़ उम्र का आदमी आया ... वह मेरी ओर जबरदस्ती बढ़ने लगा | मेरे पास ही काँच का एक गुलदस्ता रखा था | मैंने वो उठाया और उसके सिर पर दे मारा | वो चिल्लाने लगा | दरवाजा खुला था | मै भागने लगी | जैसे तैसे उस मकान से निकली तो कुछ आदमी मेरे पीछे पड़ गए | वहीं एक बस जा रही थी, मैं बचते बचाते उस में चढ़ गई | और अगली सुबह मैं यहाँ दिल्ली में 

" अब समझ आ गया था बाबू ... जो है , वो है ... छुपने छुपाने का कोई मतलब नहीं... यहाँ मेरे जैसे कुछ और लोग मिल गए... एक दीदी है जो हम सब का ध्यान रखती है ... उस दीदी में ही मुझे अपनी बहन नज़र आ जाती है बाबू.....  लाख लाख शूकर है उस ऊपर बाले का  ... जैसे तैसे जिंदगी कट रही है  .... बाबू तुम ने यह सब सुन लिया ... नहीं तो हमे कोई पूछता कहाँ है  .... "

 अब नाम में क्या ही रखा है ? और मैं नाम पूछ रहा था | नीलू , मन्नू, मल्लिका , सोनू, सोनिया... न जाने कितने परिचयों को अपनाया और त्यागा है | यहाँ परिचय की तलाश करना मूर्खता है | इन अतीत के पन्नों में दुख के इलावा कुछ भी नहीं है | वे भाग रहे थे, लड़ रहे थे| जो जीवन उन पर भार बन गया था, उस जीवन को बचाने की होड में लगे थे | कितनी विचित्र बात है कि जो व्यक्ति जीवन भर अपमान की आग में जला, जो हर दिन बहिष्कार को झेलता है ... वही व्यक्ति यहाँ चहरे पर बड़ी सी मुस्कुराहट के साथ आते जाते अपरिचित यात्रियों को आशीष भेंट कर रहा है | दुआ मांगता है कि दूसरे के जीवन में केवल सुख ही सुख रहे |

वह अपना खोया हुआ परिचय पेश कर के जाने लगी | मैं कुछ कह पाता इतने में ही एक आवाज़ मेरे कानों में आ पड़ी ...कंडक्टर चिल्ला रहा था ... चंडीगढ़ , चंडीगढ़, चंडीगढ़ .....

 

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