कहीं हरियाली की विरासत,
तो वीरान रेगिस्तान हैं कहीं,
एवरेस्ट सी ऊँचाई,
मेरियाना सी गहराई है यहीं,
धधकते ज्वालामुखी तो,
अंटार्कटिका सी शीतलता है यहीं,
यही धरती, यही धरा, वसुंधरा है यही,
विश्वंभरा दास्ताँ तुम्हारी कुछ अनकही सी है,
सागर की बाँहों में नदियाँ यहीं पर है,
चाँद को अपना दीदार कराती हो,
और हर रोज़ सूरज के सामने नतमस्तक हो जाती हो,
अंतरिक्ष में तुम्हारा नीला रूप अनोखा है,
तुम्हारे आस-पास शुक्र और मंगल का डेरा है,
अब तुम भी तो सहम गयी हो,
अन्दर ही अन्दर धधक रही हो,
रोती हो तो प्रलय ले आती हो,
हे धरणी तुम धन्य हो,
इतना सब हँसते हुए सह जाती हो।
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