नवंबर में आती हो,
दिसंबर में पैर जमाती हो,
जनवरी में इतराती हो,
और फरवरी में मुरझा जाती हो,
खुद तो आती हो,
ठिठुरन भी संग लाती हो,
भेदभाव नहीं करतीं,
कौन ,कहाँ, कैसा है ?
पर भूल जाती हो,
किसी को बस छू कर निकल जाती हो,
तो किसी की हड्डियां जमा जाती हो,
ना जाने इस समय इतना क्यों इठलाती?
दम है तो जून में क्यों नहीं आती?
सूरज को भी आँख दिखती हो,
सफेद चादरों से उसे छुपाती हो,
ना जाने क्यों नादान हो?
तुम तो सिर्फ कुछ महिनों की मेहमान हो,
दरख्वास्त है हमारी सूरज को रिहा करो,
बेहाल है जन-जीवन कुछ तो दया करो,
अतिथि हो हमारी,
स्वागत है तुम्हारा,
खुले हैं द्वार हमारे,
हर साल समय पर आना ।
Comments
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Behtreen 🤙🏻
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