गिरते रहे, उठते रहे
हर रोज़ मजबूत बनते रहे ,
कुछ आशाएँ हैं मुठ्ठी में ,
जिनके लिए हर रोज़ सपने बुनते रहे ,
उलफ़त में रहे ,तकल्लुफ़ में रहे
सपनों के लिए दुनिया से लड़ते रहे ,
मुठ्ठी न खुलने दी ,
कहीं आशाएँ बिखर न जाएँ
मुठ्ठी भर आशाओं की खातिर ,
हम खुद से भी लड़ते रहे ,
जद्दोजहद में हैं कुछ ख्वाब मेरे ,
कशमकश में हैं आशाएँ भी यहाँ ,
जब तक प्रयास पूरे न हों ,
ख्वाबों को बिखरने कैसे दूँ ?
लश्करों के आते ही राहें क्यों बदल लूँ ?
कैसे भूल जाऊँ ,मेहनत को अपनी ?
मुठ्ठी भर आशाएँ बाकी हैं अभी ।
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.