बिख़री आबरू को देखकर भी खैरियत पूछ रहे हैं ।
पत्थर बूढ़ी इमारतों से तबीयत पूछ रहे हैं ।।
हिज़्र की मौत से मरने वाले चुपचाप मरना चाहते है ।
मरने से पहले लोग उनसे कैफ़ियत पूछ रहे हैं ।।
बिछड़े है जब-जब यार से तो रोई है हजारों आंखें ।
मैं तो रोई भी नहीं फिर भी आब -ए- तल्ख़ गिने जा रहे है ।।
अजब़ है कि कोय बे बुनियादी रिश्ता निभा रहे हैं ।
अदीब हैं वो जो बेवफ़ाई के बदले वफ़ा निभा रहे हैं।।
आज़ मिलीं है तेग़ जिससे हुआ था कत्ल मिरा ।
हम उसपे बशर के हाथ का निशां ढूंढ रहे हैं ।।
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(आब-ए-तल्ख़ - आंसू ; कैफ़ियत -हाल
अजब़ - आश्चर्य ; अदीब - विद्वान ; तेग़ - तलवार ; बशर - आदमी )
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