मान बैठी

122 122 122 122 -: बहर

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Manu jain
Manu jain 25 Jun, 2020 | 1 min read


गगन से चली जो जमीं की तरफ तो

इसे आख़री वो सफ़र मान बैठी


ना जाने था बूंदों को क्या मोह ऐसा

जमीं को ही अपना कबर मान बैठी


जो रहती थी आकाश में सबसे ऊपर

वो क्यूं आज खुद को अधर मान बैठी


है जीना यहीं पे है मरना यहीं पे

जमीं को ही अपना बसर मान बैठी


जमीं के लिए इक है फ़रमान जैसे

वो खुद को खुदा का खबर मान बैठी


वो अपने भी अन्दर जमीं को ही देखे

वो अपना इसे इस कदर मान बैठी


वो सुनती नहीं बस चली जा रही है

मुहब्बत का जैसे सफ़र मान बैठी


गिरी जब वो पत्तों पे मोती के जैसे

वो नादान उसको सदर मान बैठी


वो जब धूप पड़ने से ओझल हुई तो

वो चंचल सुबह को सकर मान बैठी


उसे है पता ना बचेगी मगर वो

जमीं चूमने को ज़फ़र मान बैठी


अधर:- नीचा

बसर:- गुजारा

सदर:- सर्वोच्च स्थान

सकर:- नर्क

*ज़फ़र:- जीत

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Manu jain

ManuJain

Comments

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  • udit jain · 4 years ago last edited 4 years ago

    बहुत सुंदर रचना मेरी बहन ❤❤❤

  • Neha Srivastava · 4 years ago last edited 4 years ago

    अतिसुन्दर👍👌

  • Manu jain · 4 years ago last edited 4 years ago

    Thank you Udit bhai

  • Manu jain · 4 years ago last edited 4 years ago

    Thank you neha mam

  • Vineeta Dhiman · 4 years ago last edited 4 years ago

    अतिसुन्दर

  • Manu jain · 4 years ago last edited 4 years ago

    Thank you vineeta ji

  • Sonnu Lamba · 4 years ago last edited 4 years ago

    Wahh

  • Manu jain · 4 years ago last edited 4 years ago

    Thank you mam

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