गगन से चली जो जमीं की तरफ तो
इसे आख़री वो सफ़र मान बैठी
ना जाने था बूंदों को क्या मोह ऐसा
जमीं को ही अपना कबर मान बैठी
जो रहती थी आकाश में सबसे ऊपर
वो क्यूं आज खुद को अधर मान बैठी
है जीना यहीं पे है मरना यहीं पे
जमीं को ही अपना बसर मान बैठी
जमीं के लिए इक है फ़रमान जैसे
वो खुद को खुदा का खबर मान बैठी
वो अपने भी अन्दर जमीं को ही देखे
वो अपना इसे इस कदर मान बैठी
वो सुनती नहीं बस चली जा रही है
मुहब्बत का जैसे सफ़र मान बैठी
गिरी जब वो पत्तों पे मोती के जैसे
वो नादान उसको सदर मान बैठी
वो जब धूप पड़ने से ओझल हुई तो
वो चंचल सुबह को सकर मान बैठी
उसे है पता ना बचेगी मगर वो
जमीं चूमने को ज़फ़र मान बैठी
अधर:- नीचा
बसर:- गुजारा
सदर:- सर्वोच्च स्थान
सकर:- नर्क
*ज़फ़र:- जीत
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
बहुत सुंदर रचना मेरी बहन ❤❤❤
अतिसुन्दर👍👌
Thank you Udit bhai
Thank you neha mam
अतिसुन्दर
Thank you vineeta ji
Wahh
Thank you mam
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