डागडर रामू जी भाग-1

एक छात्र के डॉक्टर बनने की कहानी

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Dr. Pratik Prabhakar
Dr. Pratik Prabhakar 15 Jul, 2021 | 1 min read
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प्रशांत काफी देर से अपने एक दोस्त का मोबाइल नम्बर ढूंढ़ रहा था पुराने नोट्स में, किताबों में, डायरियों में। पुराने नोट्स खोलते ही यादों की खुशबू उसके सांसो में समाने लगी। कितनी सारी यादें इन किताबों , कॉपियों में छुपी हुई थी। कैसे ग्यारहवीं में बायोलॉजी लेते ही उसने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा की तैयारी शुरू की थी। कैसे उसके नॉन मेडिकल विषयों वाले दोस्तों ने उसका मजाक उड़ाना शुरू कर दिया था। बायोलॉजी लेने के बाद मेडिकल के अलावा किसी और कोर्स के बारे में सोंचता कौन है।और यहीं पर गलती हो जाती है ।जब कई प्रयासों में सफलता नहीं मिलती तो छात्र आत्मग्लानि से भर जाता है।


खैर,इंट्रेंस की तैयारी के लिए बनारस के एक प्रसिद्ध कोचिंग में उसने एडमिशन लिया और यहीं उसकी मुलाकात हुई थी रामू से।और आज उसी रामू का नंबर ढूंढ़ रहा था प्रशान्त।कितना मजाक उड़ाते थे सहपाठी रामू का । नाम को लेकर, उसके कपड़ों को लेकर और भाषा को लेकर। जब जब रामू अपने बेल - बटम वाला पैंट को पहन कर आता ,कक्षा में हँसी का पात्र बनता। रामू का मज़ाक उड़ाने में सबसे आगे था प्रशांत। आज रामू किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में पढ़ता है और प्रशांत को अपनी माँ के इलाज के लिए वहीं जाना था।


प्रशांत को याद आता है कैसे रामू सबसे "आप "कहकर बात करता था और प्रत्युत्तर में "जी ..जी" कहता था।इसलिए काफी साथी उसे "डागडर रामू जी" कहने लगे थे।पर रामू तो मानो चिकने घड़े जैसा था ऊपर पानी के माफ़िक पड़े टीका टिप्पणी का कोई असर ही नहीं होता था। मेडिकल इंट्रेंस की तैयारी शुरू करते ही छात्र अपने नामों के आगे डॉक्टर लगाने लगते है पर जब वो कई प्रयासों के बाद भी पास नहीं हो पाते तो यही डॉक्टर शब्द उन्हें नकारात्मक विचारों से भर देता है।


अब रामू मेडिकल स्टूडेंट था पर राह इतनी आसान भी नही थी। वर्ष था 2012। रामू ने कोचिंग में प्रवेश के लिए आयोजित प्रतियोगिता परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करते हुए फीस में 80% की छूट प्राप्त की थी और निःशुल्क होस्टल भी। रामू बहुत गरीब परिवार से था । पिताजी एक कंपनी में कपड़ों की रंगाई का काम करते थे पर ज़िन्दगी में रंग से मरहूम थे। माँ फटी साड़ी में कपड़ों की सिलाई करती थी। तभी तो रामू जब हॉस्टल आया था तो उसके पास दो जोड़ी कपड़ें, एक जोड़ी चप्पल , एक छोटी पेटी में रखे किताबों के अलावा बस एक मामूली सा मोबाइल फ़ोन था जिसके कवर को रबर से बांध कर रखा गया था।


हिंदी मीडियम से पढ़कर आये रामू के लिए सबकुछ अंग्रेजी में पढ़ना आसान नही था। "अन्तः प्रदव्यी जालिका" पढ़कर आये रामू के लिए "एंडॉप्लसमिक रेटिकुलम" पढ़ना आसान नहीं था। कई बार तो वह शिक्षक के प्रश्नों को समझ नहीं पाता था और कई बार अपने देसी बोली के कारण हँसी का पात्र बनता था। तीन महीने तो रामू को अंग्रेजी समझने में लग गए। पर तब तक देर हो गयी थी।वह मासिक परीक्षा में अच्छा नही कर पा रहा था । दिन प्रतिदिन उसके आशाओं के आकाश में निराशा के काले बादल मंडराने लगे। रामू ने बहुत प्रयास किये पर प्रयास फलीभूत होते नजर नहीं आ रहे थे ।अब उसका खुद पर से विश्वास उठने लगा था।

दसवीं की परीक्षा में राज्य के मेरिट लिस्ट में नाम आने के बाद ये हाल , पर अब क्या, देर तो हो गयी थी।

क्रमशः ........ दूसरे भाग में

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