ये काला कोट मेरे बदन पर चुभ रहा है । इस तपती दोपहरी में भी ये तेज़ चमकती धूप नहीं बल्कि ये कोट मेरी परेशानियों का सबब है। मैं जब इसे पहनती हूँ तो मेरा सारा का सारा वजूद इसमें ढक जाता है और मैं इसके बोझ तले दब जाती हूँ। मेरी साँसें उखड़ने लगती हैं मानो मैं अपने कुछ आख़िरी पल गिन रही हूँ।
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मैंने अपना कोट उतार दिया है साथ-ही-साथ वो व्यक्तित्व भी जिसे ढो पाना मेरे लिए हर वक़्त एक चुनौती होती है। अब मैं बेहतर महसूस कर रही हूँ।
स्वरचित एवं मौलिक
अदिति मिश्रा 'वर्तिका'
5/7/2022
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