प्रस्तावना-2
वो एक बहुमंजिली इमारत का सबसे ऊपरी हिस्सा था। हवा सांय-सांय बह रही थी। इस सर्दी की रात के दूसरे पहर में ऐसा लग रहा था हवा नहीं चल रही मानो ठंडा पानी बह रहा था। तापमान शून्य से भी नीचे लुढ़क गया था।
एक आदमी उस छत से नीचे लटका हुआ ज़ोरों से चिल्ला रहा था। उसे देख के लग रहा था कि वो अब गिरा की तब। वो किसी से खुद को बचाने की मिन्नतें कर रहा था।
"आर्यस्वामी! मुझे माफ़ कर दीजिए। मुझ पर दया करिए। मुझे बचा लीजिए।"
उसके हाथ को एक काली स्याह आकृति ने पकड़ रखा था। उस आदमी की मिन्नतें सुन वो आकृति ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी।
"ओ मेरे प्यारे शेर! तुम्हें तो पता है ना मुझे ऊपरवाले ने दया नाम के गुण से बिल्कुल रहित बनाया है। तुम्हें मेरा दिल दया की बात करके ऐसे दुखाना नहीं था ना!" इतना बोलकर वो आकृति चुप हो गई।
इस अँधेरी रात में उस आकृति की स़िर्फ लाल चमकती आँखें ही दिख रहीं थीं। अचानक से वो आँखें और गहरी लाल होने लगीं। ये देखकर लटका हुआ व्यक्ति और ज़ोरों से चिल्लाने लगा।
...और फिर अंत में वही हुआ जिसका अंदेशा था। उस आकृति ने उस व्यक्ति का हाथ छोड़ दिया। और वो व्यक्ति सीधा ज़मीन पर जा गिरा।

(इमेज स्त्रोत:पिनट्रेस्ट)
"छिः! कितना गंदा दृश्य है ये।" वो आकृति बोली। उसकी आवाज़ में एक अजीब-सी घृणा मिश्रित खुशी का भाव था।
"तुम्हें उस चार साल की छोटी बच्ची के साथ पाप करने से पहले दया-धर्म की बातें सोचनी चाहिए थी।" वो आकृति सबसे नीचे पड़ी उस व्यक्ति के लाश को देखकर बोली जो इस समय खून से पूरी तरह लथपथ और क्षत-विक्षत पड़ी थी ।
"कुछ तो बोझ कम हुआ धरती का!" तभी जैसे उसे कुछ ध्यान आया।"आआआआ! नहीं! ये पापी तो नर्क में जायेगा! और नर्क का स्वामी हूँ मैं! मतलब फ़िर से इस गंदे आदमी को मैं ही झेलूँगा! नहींहींहींहीं!" वो आकृति ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी।
...तभी ये सर्द काली रात और काली हो गई। आसमान में छाए बादलों में अजीब सी गर्जना होने लगी। बेतहाशा बिजली चमकने लगी, गरजने लगी।
...तभी वो काली आकृति एक डरावना अट्टहास करती हवा में कहीं ग़ायब हो गयी।
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अगला भाग जल्द ही आएगा।
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