हमारे यहाँ पूर्वी यूपी में एक कहावत बहुत प्रचलित है "मुट्ठी बान्ह के आए हैं, हाथ पसार के जाएँगे। " ये जीवन की नश्वरता और क्षण भंगुरता को दर्शाती है, साथ-साथ ये भी बहुत सुन्दर तरीके से बताती है कि ना तो हम कुछ साथ लेकर आए हैं,ना ही कुछ लेकर जाएंगे, चाहें तब भी नहीं! अरे जब अपना शरीर भी अपना नहीं होता, उसे भी छोड़कर जाना पड़ता है, तो और की तो बात रही!
पर पापी मन जो ना करवाये उसके हाथों मजबूर इंसान से! हाँ! ये तो हमारी आदत है, कभी अपनी गलती की जिम्मेदारी खुद थोड़े लेते हैं, हमें तो बस कोई बहाना चाहिए, अपने पाप का ठीकरा दूसरों पर फोड़ आगे बढ़ जाते हैं।
मेरी प्यारी नानी की कुछ दिन पहले आकस्मिक दुर्घटना के कारण मृत्यु हो गई। अभी उनका ब्रह्म भोज भी नहीं हुआ था कि उनके बेटे-बहु छोटी-छोटी बातों पर आपस में ही झगड़ पड़े। बिना ये सोचे की नानी ने कितने संघर्षों से पाल-पोस कर उन्हें बड़ा किया, लायक बनाया , कुछ तो लिहाज करें उनके जाने का, लेकिन नहीं! उन्हें तो लगता है जैसे जन्म से ही वो ऐसे हैं। उनके लिए नानी- नाना ने क्या किया? कुछ भी नहीं! और ये सब कुछ देख कर भी मेरी माँ कुछ नहीं बोल सकती थीं क्यूंकि वो बेटी हैं और बेटियां शादी के बाद अपने माता-पिता के परिवार का हिस्सा नहीं होतीं। शादी के बाद पति का परिवार ही उनका परिवार होता है।
तो मेरी माँ मरती क्या ना करती! चुप चाप मजबूर होकर सारे तमाशे को देखती रहीं खुद को ये दिलासा देकर कि ना तो ये कोई पहला परिवार है जहाँ ऐसा हो रहा, ना कोई आखिरी। हमेशा से ये सब होता आया है और होगा!
.....और मैं ने भी आसमान की तरफ देखकर आखिर नानी से पूछ ही लिया कि "कब तक?"
शाम हो चली थी और सूरज अपनी ढलान पर था।
पूरे आसमान में लालिमा छाई हुई थी।
सारे पक्षी कोलाहल करते हुए रात होने से पहले अपने घरौंदों में लौट रहे थे वापस अपने बच्चों के पास।
अदिति"वर्तिका"
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
@सर्वाधिकार सुरक्षित
Comments
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सही बात है। पिता का परिवार, पराया होता है। पति का परपरया होता है, ज़्यादातर पीड़ादायक।
बहुत बहुत धन्यवाद मनोज जी
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