ख़ुद से कितनी शिकायतें रखूं ...
जब पता है लाख कमियां हैं मुझ में !
तुमसे कितनी उम्मीदें रखूं ...
जब तुम मेरे नहीं !
सोचा ना था कि कभी ऐसा दिन भी आएगा! कितने ही ख्वाब देखे थे मैंने पर ख्वाब देखना ही काफ़ी नहीं होता, उन्हें पूरा करने के लिए हिम्मत होनी चाहिए, जो मेरे पास नहीं था। नतीजा, ये है कि मैंने अपने हाथों ही अपना परिवार तबाह कर डाला।
पढ़ाई करते हुए अक्सर ये ख्याल मन में आया करते थे कि पढ़-लिख कर एक अच्छी नौकरी करनी है, बड़ा पद पाना है, खूब पैसे कमाने हैं पर कभी ये ख्याल नहीं आया कि अपने परिवार को भी सम्भालना है, उनकी शक्ति बननी है।
मैं शुरू से ही बहुत महात्वाकांक्षी थी, बड़े-बड़े ख्वाब थे मेरे। माता-पिता ने भी भरपूर सहयोग किया, पालन-पोषण से लेकर पढ़ाई-लिखाई, सब में। जीवन के हर पड़ाव पर मेरे साथ रहे।
नतीजतन बहुत कम उम्र में मुझे एक चोटी की बहुराष्ट्रीय कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के तौर पर बहुत अच्छी तनख्वाह के साथ नौकरी मिल गई। उम्र सिर्फ़ इक्कीस साल थी और मैं थी मेहनती और महात्वाकांक्षी, सो सफलता की सीढियाँ जल्दी-जल्दी चढ़ती गई। इस सफलता और विकास ने कई अच्छे बदलाव मेरे जीवन में लाए पर साथ-ही-साथ साथ ये भाव भी ला दिया कि जो हूँ, सिर्फ़ मैं ही हूँ, और मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ। या शायद मैंने ही आने दिया! जो भी था, पर वो मेरे पतन की शुरुआत थी।
देखते-देखते समय बीताता गया और मेरे माता-पिता ने मेरी शादी एक बहुत अच्छे घर में करा दी। सास-ससुर, पति और मैं,,,, बस यही था मेरा प्यारा छोटा-सा परिवार। प्रेम किसको नहीं भाता। मेरे भीतर भी अपने परिवार के लिए कुछ भी कर गुजरने की ख्वाहिश ने जन्म लिया,,,,,! पर अफ़सोस कि ये सिर्फ़ एक ख़्वाहिश बनके ही रह गया।
समय पंख लगाकर उड़ गया। मेरी शादी को आठ साल बीत गए। इस बीच मैं एक प्यारी-सी बच्ची की माँ भी बन गई, पर उसे मैंने मात्र जन्म दिया, उसका पालन-पोषण उसकी दादी ने किया क्योंकि मेरे पास अपने बिजी शेड्यूल के कारण कभी समय ही नहीं रहा अपनी बच्ची के लिए। मैं बहुत बुरी माँ हूँ ना? जानती हूँ।
पर असली समस्या तो तब शुरू हुई जब वो पाँच साल की हुई और स्कूल में उसका एडमिशन हो गया। मुझे आज भी याद है जब उसने मुझे अपने तोंतले स्वर में बताया कि उसके स्कूल में पी टी ए मीटिंग है और वो चाहती है कि मैं भी उसके मीटिंग में चलूँ। पर मेरे पास तब इन सब के लिए समय नहीं था तो मैंने साफ़ मना कर दिया। पर वो मुझसे बार-बार कहती रही, उसके पिता यानी मेरे पति ने भी मुझसे बहुत विनती की पर काम का हवाला दे कर मैंने मना कर दिया। पर अब अफ़सोस होता है कि काश! काश! मैं ने उन दोनों की बात मान ली होती तो आज,,आज मैं अपने जीवनसाथी, अपनी बच्ची ,परिवार के साथ होती। पर,,,,मैं ऐसा ना कर पायी।
ये सिलसिला जो शुरू हुआ तो चलता ही रहा। बेटी नर्सरी से दूसरी कक्षा में आ गई, पर मैंने उसके स्कूल की एक भी पी टी ए मीटिंग नहीं अटेंड की। बेटी हर बार कहती और मैं हर बार ही टालती रहती। पर इस बार ऐसा ना हुआ। हर बार की तरह तिमाही पी टी ए मीटिंग में चलने के लिए मेरी बेटी ने मुझसे कहा और मैंने मना कर दिया। मुझे लगा हर बार की तरह इस बार भी मीटिंग में सासूमाँ और मेरे पति चले जाएंगे और बात आयी-गयी हो जायेगी, पर इस बार ऐसा ना हुआ। इस बात को लेकर मेरा मेरे पति से ज़ोरदार झगड़ा हो गया। पूरे घर में तनावपूर्ण माहौल बन गया। गुस्से में मेरे पति ने भी मुझे बहुत कुछ कहा और मैंने भी उन्हें बहुत कुछ कहा,,,शायद वो सब भी जो मुझे नहीं कहना चाहिए था। और घमंड तो मुझमें कूट-कूट कर भरा हुआ था सो मैंने ये जानते हुए भी कि गलती मेरी है, उनसे माफ़ी नहीं माँगी।
इसी बीच मुझे एक प्रोजेक्ट के लिए मुंबई जाने का ऑफर मिला। ये प्रोजेक्ट भी सिर्फ़ एक हफ्ते का था। अपने काम को लेकर मेरा जुनून तो कभी किसी से छुपा था भी नहीं, मुझे तो वैसे भी जाना था, पर इस समय घर के तनावपूर्ण माहौल को देखकर बजाए इसके की मैं इसे दूर करूँ, मैंने उस प्रोजेक्ट को स्वीकार लिया,,,,और यही थी,,,,यही थी मेरी सबसे बड़ी गलती। मैं वैसे तो गई मात्र हफ्ते भर के लिए थी पर वहाँ काम बढ़ने के कारण मुझे महीने भर रुकना पड़ा। काम को पूरा करने के लिए अगर मरना भी पड़े तो मैं खुशी-खुशी मर जाऊँ, अपने काम को लेकर मेरा समर्पण ऐसा है। इसलिए मुझे तो कोई समस्या नहीं हुई पर मेरे पीछे मेरा घर,,,,,वो,,,,टूट गया! जब मैं वापस लौटी तो मेरे पति ने मुझे तलाक़ के कागज़ थमा दिए। और कारण बताया अपने परिवार के प्रति, अपनी बेटी के प्रति और अपने दांपत्य संबंध के प्रति उदासीनता और गैर-जिम्मेदाराना रवैया।
मैं हतप्रभ-सी बस तलाक़ के काग़ज़ ही देखती रह गई। कुछ समझ नहीं आया।
रेत के माफ़िक मेरे हाथ से मेरी ज़िन्दगी, मेरा परिवार, मेरे पति, मेरी बच्ची,,,,सब कुछ एक झटके में हाथ से फिसल गए।
मेरे पति ने गलत किया,,,,जानती हूँ, पर उनसे भी ज़्यादा गलत मैंने किया।
परिवार पति-पत्नी दोनों मिलकर आपसी समझ और सामंजस्य से चलते हैं, मैं ये भूल गयी थी। मैं भूल गयी थी कि परिवार गुस्से से, जड़ता से और उपेक्षा से नहीं बल्कि एक-दूसरे के लिए प्रेम से, विश्वास से, सम्मान से और धैर्य से सम्भाला जाता है। उसे समय देना पड़ता है। उसके लिए जरूरत पड़ने पर बलिदान भी देने पड़ते हैं। उसे अपनाना होता है पूरे मन से, तभी वो आपको भी अपना पाता है। एक माँ, एक पत्नी और एक बहु की जिम्मेदारियों से कोई भी महिला मुँह नहीं मोड़ सकती,,, चाहें वो कितनी ही सफल क्यों ना हो!
और अगर वो ऐसा करती है तो उसका भी हाल वही होगा जो मेरा हुआ! यही सब सोचते-सोचते एयरपोर्ट पर बैठे-बैठे मुझे,,,,,झटके से मेरी आँखें खुलीं।
अरे! ये क्या? ये तो एक सपना था! पर कितना भयानक था। मैं भी वही सब कर रहीं हूँ जो सपने में देखा! और अगर किसी दिन मेरी उपेक्षा से तंग आकर मेरे पति ऐसा कठोर कदम उठा लेते हैं तो,,,,
मैंने तुरंत अपने पर्स से फोन निकाला और ऑफिस फोन करके अपने बॉस को बता दिया कि मैं मुंबई नहीं जा रही।
ऐन मौके पर यूँ बैक ऑफ करने का जब बॉस ने कारण पूछा तो मैंने कहा कि मुझे अपने परिवार को समय देना है, और इसीलिए अब मैं ओवर टाइम भी नहीं करूंगी और कोई एक्स्ट्रा प्रोजेक्ट भी नहीं लूँगी, सिर्फ़ अपना काम पूरा करुँगी और ठीक रात के सात बजे जब बाकि सब की छुट्टी होगी, मैं भी घर लौट जाऊँगी।
मैंने जिस अंदाज़ में ये बातें अपने बॉस को बतायीं उसके बाद उनकी हिम्मत नहीं हुई आगे कुछ कहने की। उन्होंने मुझे इन सभी के लिए अपनी स्वीकृति तुरंत ही दे दी।
मैं अब निश्चिंत हो गई और अपनी बेटी को फोन किया।
जब उसने फोन उठाया तो मैंने उसे बताया कि अब मैं घर आ रहीं हूँ, उसके साथ, उसके पापा के साथ और दादा-दादी के साथ वक़्त जो बिताना है।
मेरी बात सुन वो बहुत खुश हो गई और उसने मुझे घर जल्दी आने के लिए कहा। मैंने फोन रखा और एयरपोर्ट से बाहर निकल कैब बुक किया और अपने घर, अपने परिवार से मिलने निकल पड़ी।
मन में एक अलग ही खुशी थी, एक अलग ही सुकून था।
एक अधूरे ख़्वाब ने मेरी पूरी ज़िंदगी को तबाह होने से बचा लिया था।
मौलिक, स्वरचित एवं अप्रकाशित
@सर्वाधिकार सुरक्षित
धन्यवाद।
वरेण्य वर्तिका (भटकती आत्मा)
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