भावनाओं में व्यक्ति अंधा हो जाता है। उसे कुछ समझ नहीं आता वह क्या कर रहा है और क्यों कर रहा है। ये एक नदी के प्रवाह जैसा है जिसमे जो गिरता है बहता चला जाता है। कोई साहसी व्यक्ति ही बहाव में यथास्थान खड़े रहने की ताकत रखता है। ऐसा नहीं है की भावनाओं को काबू नहीं किया जा सकता। समस्या यह है कि व्यक्ति को इसमें रस आता है। वो रस संयोग या वियोग कैसा भी हो सकता है। दर्द में भी एक तरह का आकर्षण होता है इसमें आप स्वयं को दोषी समझते हैं और यथासंभव स्वयं को लताड़ते भी हैं। लेकिन अगर आप दूसरे को दोषी समझ रहे हैं तो वह उसके प्रति आपकी आसक्ति है जो चाहती थी की सामने वाला आपके अनुरूप काम करे। इसलिए रस लेना बंद कीजिए और वही काम कीजिए जो आवश्यक है।
भावनाएं आपको स्वयं को प्रताड़ित करने के लिए नहीं बल्कि दूसरों के दुख को समझकर उनको उस दुःख से बाहर निकलने के लिए दी गई हैं। जैसे नौसिखिया तलवार से स्वयं को घायल कर लेता है वैसे ही आप भी अपनी शक्तियों का उपयोग स्वयं को तंग करने में कर रहे हैं। अगर किसी बात से किसकी को भी सुख नही हो रहा ना ही उससे कुछ नया उत्पन्न हो रहा तो वो बात सर्वथा त्याज्य है। उसपे अपना समय व्यर्थ न करें। जो भी शक्तियां (सुनना, बोलना, काम करना) आपको दी गई हैं उनका अन्यथा उपयोग करना आपके और दूसरों के लिए हानिकारक ही होगा।
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