अकेले बैठा हंसता है खिलखिलाता है
सोता है खूब खाता है आदमी।
सबके सामने हंसते-हंसते और आंसू छुपाते ऊब जाता है आदमी।
जब सुनने वाले बहुत हों समझने वाला कोई नही
तब खुद ही बुदबुदाता है आदमी।
कोई ‘दिल का करीबी समझकर’ समझे तो सही
अपना हर एहसास बताता है आदमी।
जब भावनाएं खुद पर हावी हों
तो खुद को खुद से बचाता है आदमी
जिसे खुद से ज्यादा प्रेम करे उसके लिए
स्वाभिमान भी दांव पर लगाता है आदमी।
हद से ज्यादा ख़ुशी हो या ग़म
हल्का होने को गुनगुनाता है आदमी
जब सबको खामियां ही नजर आएं तो भी खुदको समझाता है आदमी।
जहां हर बात को उछाला जाए
हकीकत बताने मे भी हिचकिचाता है आदमी।
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