दिनभर धूप में तपता हुआ
पसीने की बूंदों से तर हुआ
अब देह में शक्ति नही शेष
फिर भी चल रहा नंगे पैर
मन मे लिए एक प्यास
पता है उसे भी अगर
न काम किया तो
पैसे नही आयेंगे।
क्या
आज फिर
घर मे बच्चे
भूखे ही रह जाएंगे।
खुद रोटी न खा सकूं
तो ठीक है।
लेकिन
बच्चों को भूखा न
सोने दूंगा।
इस उम्मीद में चल पड़ा
फिर मजदूर
बच्चों के
सुनहरे सपनो को
पंख मैं ही दूंगा।
माना
मजदूर हूँ
अपना पसीना बहाकर
जो मैं न कर सका
अपने लिए
वो सब अपनो के लिए
करूंगा।
मजदूर के बच्चे
अब मजदूरी नही करेंगे।
जी जान से पढ़ाई कर
खुद का महल
खड़ा करेंगे।
देख लेना तुम भी
मेरे हाथों की उन
लकीरों को
जो अब नया रूप ले रही है।
विनीता धीमान
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