आईसीयू के बड़े से कक्ष में तमाम आधुनिक मशीनों के सहारे उसके जीवन बचाने की कोशिश चल रही थी । सभी अपने अपने प्रयासों के साथ प्रार्थनाएं भी कर रहे थे कि विदिशा की जान बच जाए ।
मानव निर्मित सभी जीवनदायिनी मशीनें आज अपनी सार्थकता सिद्ध करना चाहती थी लेकिन असहाय थी । है तो आखिर वह निष्प्राण मशीनें ही । वह किसी को क्या जीवन देंगी ? जीवन दाता तो विधाता है ।
मात्र 19 वर्ष की आयु में जीवन का सबसे कटु अनुभव ,उसके सुकुमार शरीर को हुआ । समाज की घृणित सोच का ऐसा विभत्स स्वरूप उसने देखा, जो वह अब तक सिर्फ सुनती आ रही थी ।
स्त्री के अस्तित्व को परिभाषित करते जिन प्रतिरूपों को विधाता ने बड़े जतन से स्थापित किया था उसी प्रतिरूप को कुछ अधमी - नर पिशाचो ने बड़ी ही क्रूरता से आहत किया था । ऐसी अवस्था में अनेक स्त्रियां प्रणान्त को, अपने मान सम्मान का अंतिम ढाल बनाकर जीवन की इतिश्री कर लेती हैं । विदिशा ने भी वही किया ।
अपने शरीर, अपने आत्मा की यह दुर्दशा व सहन नहीं कर पाई और कीटनाशक खाकर अपने जीवन का अंत करने का जघन्य अपराध किया ।
उस माँ की वेदना कैसे कही जा सकती है जिसकी बेटी बलात्कार के बाद मरणासन्न अवस्था में हो । उस पिता और भाई की मनोदशा को केवल और केवल कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है ,यह कथित समाज क्या समझेगा ?
अस्पताल के बाहर खुद को समाज का तीसरा स्तंभ कहने वाले कुछ संवेदनहीन पत्रकार मां-बाप से पूछते हैं- क्या हुआ था आपकी बेटी के साथ ? इस बारे में कुछ कहना चाहेंगे ? ,जब आपको पता चला कि आपकी बेटी के साथ यह दुर्घटना हुई तो सबसे पहले आपने क्या सोचा? कैसा महसूस हुआ?
एक तीसरा पूछता है - आप ने बेटी को रात में घर से बाहर क्यों जाने दिया? एक पूछता है - मैंने सुना है कि, अभियुक्त आपकी बेटी का पुरुष मित्र है और वह उसे पहले से ही जानती हैं।
बेचारी माँ रोती रही ..।क्या जवाब देती ...उसकी पीड़ा को कौन समझता ? कैमरे से निकले फ्लैश लाइट से अपना चेहरा अपने आंचल में छुपाती एक बेबस माँ बस किसी तरह वह वहां से निकलना चाहती थी ।
वह अपनी बेटी के बारे में जानना चाहती थी कि वह कैसी है? डॉक्टर कुछ बता नहीं रहे थे पर मां का दिल शंकित था किसी अनहोनी से ।
विदिशा कॉल सेंटर में काम करती थी । मां बाप की अकेली संतान है । उसकी सलोनी रंगत मे अद्भुत आकर्षण था उसकी आँखें जीवन से भरी थी । वह बहुत कुछ करना चाहती थी जीवन में । अपने मां-बाप को बहुत सारी खुशियां देना चाहती थी ।
माचिस की डिब्बी में भरी हुई शांत किंतु अग्नि धारण करती हुई माचिस की तीलियों की तरह उसके मस्तिष्क रूपी डिब्बी में भी कई शान्त लेकिन , चमकते सितारों जैसी ख्वाहिशें थी उसकी ।
उस रात जब वह ऑफिस से टैक्सी में लौट रही थी तो 2 दरिंदों ने उसके सपने और शरीर दोनों रौंद डाले । अल्पायु मे वह यह चोट बर्दास्त न कर सकी और आत्महत्या जैसा कदम उठा लिया । जोकि हमारे समाज में आमतौर पर होता है ।
लेकिन यह अद्भुत संयोग था कि विदिशा कुटज से ना सिर्फ परिचित थी बल्कि प्रभावित भी थी । कुटज के वृक्ष और फूल उसे सदैव अपनी और आकर्षित करते ।
आईसीयू के कक्ष में हलचल बढ़ गई थी शायद हृदय गति धीमी हो रही थी । डॉक्टर अपने जीवन काल में अर्जित किए ज्ञान का संपूर्ण प्रयोग कर चुके थे पर शिथिल शरीर कोई प्रतिक्रिया नहीं कर रहा था ।
किंतु मस्तिष्क! वह तो कुटज से मिलने चल पड़ा था । कुटज की मनोहर छवि पिछले वर्ष उसने देखी थी और जब उसके बारे में जाना तो उसकी जीवन जीने की शक्ति से बहुत प्रभावित हुई थी ।
आज जब विदिशा स्वयं जीवन- मृत्यु के बीच झूल रही थी तो उसे कुटज का वृक्ष याद आया । उस पर खिले फूलों के गुच्छे उसे अपने पास बुला रहे थे और कह रहे थे लड़ो , संघर्ष करो और जियो ...
मानो उन फूलों के गुच्छे ने उससे पूछा- जीना चाहती हो ?
विदिशा बोली - हां ! लेकिन कैसे ? अब समाज मे मेरा कोई सम्मान नहीं है। मेरा ऐसा दुसह अपमान हुआ है कि जीवन संभव नहीं । मेरा मन, मेरी आत्मा और मेरा सम्मान सब नष्ट हो चुका है । इसलिए मै जीवन त्याग कर तुम्हारे पास आ रही हूं । मैं यही रहूंगी तुम्हारी छाया में ।
कुटज के फूल मुस्कुराए और बोले - हे प्रिये ! हम भय या दुख से पलायन नहीं करते, ना ही जीवन के लिए किसी की कृपा की भीख मांगते हैं । हम निर्भय रहते हैं और अपनी आवश्यकताओं को अपनी इच्छाशक्ति से प रसातल से भी खींच लाते हैं और हर परिस्थिति में सर उठा कर जीते हैं , प्रसन्न रहते हैं । क्योंकि जीवन अनमोल है ।
ऐसा कहते हुए सैकड़ों कुटज के फूल विदिशा के ऊपर झड़ने लगे और विदिशा उल्लास की लहरों में झूम कर उन सारे फूलों को चुनकर जीवन की डगर पर वापस चल पड़ी ।
अब डॉक्टरों और नर्सों की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी- चमत्कार हो गया ! पल्स रेट वापस बढ़ रही है, हार्टबीट भी बढ़ रही है । नर्स अंदर - बाहर आ -जा रही हैं।
उनके पैरों की आवाज बढ़ गई थी पर विदिशा तो कुटज के फूलों को समेटे अपने नए जीवन की यात्रा मार्ग को सजाने में लगी थी ।
वह तैयार थी सभी को उत्तर देने के लिए ,वह तैयार थी अपराधियों को दंड दिलाने के लिए । उसके अंतस के गहरे अंधकार में आशा का सूर्य उदीयमान हो रहा था । कुटज के फूल अब भी प्रेरणा रूप में उसके पास मुस्कुरा रहे थे ।
विद्या शर्मा
फरीदाबाद हरियाणा
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
No comments yet.
Be the first to express what you feel 🥰.
Please Login or Create a free account to comment.