कतरा कतरा पिघलती शाम से बस एक टुकड़ा जिंदगी मिली है
जो बातें रह गई कुछ अनकही कुछ अनसुनी
अब मां के मखमली आंचल से नई मंजिलों की तरफ बढ़ने की दौड़
शायद यह तपस्या लाए नई भोर
दर्द की एक नदी जो थमी सी है उसको मिल जाए कोई किनारा और जो अब तक छुपा था हुनर सामने आए हमारा
सप्त अश्व पर होकर सवार इस आंगन से जाएं सपनों के इंद्रधनुष पा जाएं
मेरे घरौंदे में रखे तुम्हारी खुशबू से
रचे बसे खत कुछ तजुर्बा ही देंगे
नए नए चेहरों को मैं भी दर्पण दिखलाऊँ, दहलीज से निकली हूं
जीवन के इस मोड पर मुसाफिर बन कुछ अच्छा कर जाऊं
मेरे बहके हुए से ख्याल आप सबके सम्मुख रख जाऊं
वर्षा शर्मा दिल्ली
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
Nice
Thanks sonia ji
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