हालातों से होकर मजबूर ही बनता है कोई मज़दूर
पेट की आग बुझाने को ही रहता है घर से कोसों दूर
करता है मेहनत इतनी पड़ जाते हैं छाले हाथ पांवों में
रहता है फिर भी वो सदा तनाव और अभावों में
गर इस जहां में मज़दूर ना कोई होता
ना होती गगनचुंबी इमारतें ना रहने को घर होता
रहते हैं ख्वाब उनके अधूरे, औरों के पूरे कर जाते हैं
रखता नहीं कोई याद उन्हें गुमनाम ही मर जाते हैं
ना समझें केवल मज़दूर उन्हें आखिर हैं वो भी इंसान
ना ढायें ज़ुल्म उनपर दें उन्हें भी उचित मान- सम्मान
हो सके ढंग से गुज़र बसर,होनी चाहिए इतनी मज़दूरी का प्रावधान
जी सकें सिर उठाकर,बना रहे उनका भी आत्मसम्मान
मौलिक रचना
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर
Comments
Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓
hello Ma'am, aapki sari kavitaye bahut acchi hain. But aap ek baar upar "blog" section me jakr "पेपरविफ्फ पर कैसे लिखें" blog me "Tag" k bare me padhe.
Bczz your all poems are really amazing.
क्या अभी भी मेरी ये कवितायें #1000कविताओं के अंतर्गत शामिल नहीं हो रही हैं
जी... नहीं
टैग लिखते समय # का उपयोग ना करें। ऐसा करने पर आपकी रचना में double hashtag हो जाते हैं।
Charu ji sabse pehle toe aapka tahedil se shukriya Aapki baat ko maante hue tag nhi lgaya toe ab usmein ek bhi tag nhi dikh rha h aisa kyon
Ma'am tag h abhi b poem me
Ok kindly connect to Instagram. My Id is charu746 I'll explain you
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