कैसे खेलूं होली मैं सांवरिया जी के संग
लगाऊं कैसे उनको मैं जी भर कर रंग
चढ़ा है उन पर तो देश प्रेम व सेवा का रंग
फीके हैं जिसके आगे सारे ही रंग
करती है जब सखियां संग पी के अपने हास परिहास
खल जाता है मुझको तब उनसे दूर रहने का एहसास
तड़पती हूं मैं विछोह में आती हैं बीती बातें याद सारी
कैसे कर दिया था सराबोर उन्होंने मुझको पिछली बारी
बच्चों ने भी कर रखी है हुल्लड़ मचाने की पूरी तैयारी
कैसे तोड़ूं दिल बच्चों का, कहकर, ना आएंगे पापा अबकी बारी
निभा रहे हैं वो तो सीमा पर अपनी ज़िम्मेदारी
सुख के पल न्यौछावर करके, होगी देश सेवा में कुछ तो अपनी भी भागीदारी
निभायें फर्ज़ अच्छे से पड़ें दुश्मन पर वो भारी
होली का क्या है ,खेल लूंगी उम्र पड़ी है सारी
मौलिक रचना
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर
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