पिता परिवार के आधारस्तम्भ कहलाते हैं
सुख हो या दु:ख साथ बच्चों के खड़े नज़र आते हैं
ख्वाहिशें पूरी करने को उनकी दिन रात एक कर जाते हैं
पर ज़रूरतों को अपनी सदा फिज़ूलखर्ची बताते हैं
हो जाये बच्चे को कुछ तो चिंता नहीं जताते हैं
पर बार बार ठीक होने की उसके दुआ वो मनाते हैं
कभी ग़लतियों पर ज़ोरदार पिटाई तो कभी डांट लगाते हैं
कभी प्यार से बच्चे को ऊंच- नीच समझाते हैं
तराशकर वो औलाद को कुंदन सा चमकाते हैं
कामयाबी पर बच्चों की वो खुशी से झूम जाते हैं
लगाते हैं झड़ी आशीर्वादों की और माथा चूम जाते हैं
दिखाई देते हैं बच्चे जब उन्हें चिंतामग्न और उदास
रख कांधे पर हाथ"मैं हूं ना"कहकर हिम्मत उन्हें बंधाते हैं
बच्चे के लिए पापा होते हैं उसकी आन -बान -शान
चाहते नहीं वो कुछ भी,मिलना चाहिए उन्हें उचित मान-सम्मान
मौलिक रचना
वन्दना भटनागर
मुज़फ्फरनगर
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